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पंडित टोरमस : व्यक्तिरण और कर्तृत्व बांझ का पुत्र । तातें जीवाविक जानने के अथि इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना।"
(८) "हे सूक्ष्माभासबुद्धि ! तें कह्या सो सत्य, परन्तु अपनी अवस्था देखनी । जो स्वरूपानुभव विष वा भेदविज्ञान विर्षे उपयोग निरंतर रहै तो काहै कौं अन्य विकल्प करने। तहाँ ही स्वरूपानंद सुधारस का स्वादी होइ सन्तुष्ट होना । परन्तु नीचली अवस्था विर्षे तहाँ निरन्तर उपयोग रहै नाहीं, उपयोग अनेक अवलंबनि को चाहै है। तातें जिस काल तहाँ उपयोग न लागे तब गुणस्थानादि विशेष जानने का अभ्यास करना ।"
(E) "सौ हे भव्य हो ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग हैं। शब्द बा अर्थ का बाँचना या सीखना, सिखावना. उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बारंबार चरचा करना, इत्यादि अनेक अंग हैं। तहाँ जैसे बने तैसें अभ्यास करना । जो सर्व शास्त्र का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र विर्षे सुगम वा दुर्गम अनेक अर्थनि का निरूपण है, तहाँ जिसका बने तिसही का अभ्यास करना, परन्तु अभ्यास विर्षे प्रालसी न होना' ।"
पंडित टोडरमल का श्रोता या शंकाकार भी कम पंडित नहीं है । वह बुद्धिमान, जिज्ञासु एवं बहुशास्त्रविद् है । मात्र उसमें एक कमजोरी है कि वह यथाप्रसंग सही अर्थ नहीं समझ पाता है । पंडित टोडरमल की शैली की यह विशेषता है कि उन्होंने अधिकांश प्रागम-प्रमाण शंकाकार के मुख में रखे हैं। उनका शंकाकार प्रायः प्रत्येक शंका मार्षवाक्य प्रस्तुत करके सामने रखता है और समाधानकर्ता आर्षवाक्यों का अपेक्षाकृत कम प्रयोग करता है, वह अनुभूतिजन्य थुक्तियों और उदाहरणों द्वारा उसकी जिज्ञासा शान्त करता है । शंकाकार उद्दण्ड नहीं है, पर वह कोई भी बात कहने से चूकता भी
' स. चं. पी०,७ २ बही, १० ३ वही, १६