________________
२४॥
पंजित टोडरमल : व्यक्तिस्व और कर्तृत्व (७) "यहाँ कोई प्रश्न कर -- जहाँ अन्य-अन्य प्रकार न संभव, तहाँ तो स्याद्वाद संभवै । बहुरि एक ही प्रकार करि शास्त्रनि विर्षे परस्पर विरुद्ध भास तहाँ कहा करिए ? जैसे प्रथमानुयोग विर्षे एक तीर्थसार की साथि हजारौं पुस्ति गए सार। करणानुयोग विर्षे छह महिना आठ समय वि छहस पाठ जीब मुक्ति जांय - ऐसा नियम किया । प्रथमानुयोग विषं ऐसा कथन किया -देव-देवांगना उपजि पीछे मरि साथ ही मनुष्यादि पर्याय विर्षे उपजै । करणानयोग विर्षे देव का सागरौं प्रमाण, देवांगना का पल्यों प्रमाण आयु कहा। इत्यादि विधि कैसे मिले" ?
(८) "बहरि अर्थ का पक्षपाती कहैं है कि - इस शास्त्र का अभ्यास कीए कहा है ? सर्व कार्य धनतें बने हैं। धन करि ही प्रभावना आदि धर्म निपज हैं । धनवान के निकट अनेक पंडित आय प्राप्त हों हैं। अन्य भी सर्व कार्य सिद्धि होई । तातें धन उपजाबने का उद्यम करना ।"
(E) "बहुरि काम भोगादिक का पक्षपाती बोल है कि - शास्त्राम्यास करने विर्षे सुख नाहीं, बड़ाई नाहीं। तातै जिन करि इहाँ ही सुख उपज ऐसे जे स्त्री सेवना, खाना, पहिरना इत्यादि विषयसूख तिनका सेवन करिए अथवा जिन करि इहाँ ही बड़ाई होई, ऐसे विवाहादिक कार्य करिए ।"
जहाँ वे किसी बात से असहमत होते हैं वहीं शंकाकार के सामने प्रश्नों की बौछार करने लगते हैं। एक के बाद एक तर्क क्रमबद्ध रूप से उसके सामने प्रस्तुत करते चले जाते हैं और उसे बच निकलने का कोई रास्ता नहीं छोड़ते हैं। जैसे सर्वव्यापी ब्रह्म के स्वरूप पर विचार करते हुए निम्नलिखित शैली अपनाते हैं :
"इहां कौऊ कह कि समस्त पदार्थनिके मध्यविष सूक्ष्मभूत ब्रह्म के अंग हैं तिनकरि सर्व जुरि रहे हैं ताकौं कहिए हैं:
मो. मा०प्र०, ४४४ २ स. २० पी०, १३ 3 बही, १४