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नख शैली
नहीं है, वह अपनी बात अपनी मर्यादा में रह कर चतुराई से कह देता है। फटकार और दुतकार मिलने पर भी अखाड़ा छोड़ता नहीं है, किन्तु जिज्ञासा भाव से वस्तु को समझने का बराबर प्रयत्न करता रहता है । शंकाकार द्वारा शंका प्रस्तुत करने के कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं :
(१) "बहुरि वह कहै है-शास्त्रविर्षे ऐसा कह्या है - तप आदि का क्लेश कर है तो करौ, शान बिना सिद्धि नाहीं।"
(२) "बहुरि वह कहै है - शास्त्रविर्षे शुभ-अशुभको समान कह्या है, तातें हमको तो विशेष जानना युक्त नाहीं ।"
(३) "बहुरि वह कहै है – गोम्मटसारविर्षे ऐसा कह्या हैसम्यग्दृष्टि जीव अज्ञानी गुरु के निमित्त से झूठ भी श्रद्धान कर तो प्राज्ञा माननेते सम्यग्दृष्टि ही होय है । सौ यह कथन कैसे किया है।"
(४) "यहाँ कहेगा- जो ऐसे है, तो हम उपवासादि न करेंगे।"
(५) "इहाँ प्रश्न - जो मोक्ष का उपाय काललब्धि पाए भवितव्यानुसारि बने है कि मोहादि का उपशमादि भए बनें है अथवा अपने पुरुषार्थतें उद्यम किए बने है, सौ कही ? जो पहिले दोय कारण मिले बनें है, तो हमको उपदेश काहेकौं दीजिए है अर पुरुपार्थते बनें है, तो उपदेश तो सर्व सुनें, तिन विर्षे कोई उपाय कर सके, कोई न कर सके, सो कारण कहा ?"
(६) "यहाँ कोऊ कहै - ऐसें है तो मुनिलिय धारि किर्चित परिग्रह राखे, सो भी निगोद जाय - ऐसा षट्पाहुड़े विषं कैसे कहा है?"
' मो० मा० प्र०, २६८ २ वहीं, ३०१ . वही, ३१६
३४० " वही, ४५५ ३ वहीं, ४४..
४ वही,