________________
वयं विषय और दार्शनिक विचार
२२७
त्याग की मुख्यताकरि याचना आदि करे हैं। केई जीव हिंसा मुख्य करि स्नान शौचादि नाहीं करें हैं। वा लौकिक कार्य आए धर्म छोड़ि तहाँ लगि जाय हैं। इत्यादि प्रकार करि कोई धर्मको मुख्यकरि अन्य धर्मकों न गिने हैं। वा वाके श्रासरे पाप श्राचरें हैं । सो जैसे अविवेकी व्यापारी कोई व्यापार के नफे के अभि अन्य प्रकारकरि बहुत टोटा पाड़े तैसें यहु कार्य भया । चाहिये तो ऐसे, जैसे व्यापारी का प्रयोजन नफा है, सर्व विचारकरि जैसे नफा घना होय तैसें करे । तैसें ज्ञानी का प्रयोजन वीतरागभाव है। सर्व विचारकरि जैसे वीतरागभाव घना होय तैसें करें जातें मूलधर्म वीतरागभाव है । वाही प्रकार अविवेकी जीव अंगीकार करें हैं. तिनकै तो सम्यक् चारित्र का आभास भी न होय ।"
1
उनके सामने इस प्रकार का जैन समाज था, जिसे उन्हें मोक्षमार्ग बताना था । सतः उन्होंने अपने तत्त्व विवेचन में सर्वत्र सन्तुलन बनाए रखा और प्रत्येक धार्मिक क्रियाकाण्ड को आध्यात्मिक लाभ-हानि की कसौटी पर कसा तथा जो खरा उतरा उसे स्वीकार किया और जो खोटा दिखा उसका इट कर विरोध किया ।
इच्छाएँ
उक्त मिथ्याभावों से इच्छाओं और ग्राकांक्षाओं की उत्पत्ति होती है । संसार के समस्त प्राणी इनकी पूर्ति के प्रयत्न में निरन्तर श्राकुल- व्याकुल रहते हैं और इनकी पूर्ति में सुख की कल्पना करते हैं । किन्तु पंडितजी इच्छा और आकांक्षाओं की पूर्ति में सुख की कल्पना न करके इच्छा के प्रभाव ( उत्पन्न ही न होना) में सुख मानते हैं । वे इच्छाओं में कोई इस प्रकार का भेद नहीं करते कि यह ठीक है और यह बुरी । उनका तो स्पष्ट कहना है कि इच्छा चाहे जिसकी हो, वह होगी दुःखरूप ही । इच्छाओं की पूर्ति करने की दिशा में किया गया पुरुषार्थ ही गलत पुरुषार्थ है । प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि इच्छाएँ उत्पन्न ही न हों। उन्होंने तीन प्रकार की इच्छाओं की
' मो० मा० प्र०, ३५४- ३५५,