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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व अगृहीत मिथ्याभाव अनादि हैं। ये जीव ने ग्रहण नहीं किए हैं, इनका अस्तित्व दूध में घी के समान उसके अस्तित्व से ही जुड़ा हुआ है। इनसे कर्म बन्धन होता है और बन्धन ही दुःस्त्र है । अगृहीत मिथ्यात्व जीव की विवशता है, परन्तु गृहीत मिथ्यात्व वह है जिसे जीव स्वयं स्वीकारता है और उसमें कारण (निमित्त) पड़ते हैं - कुदेव, कुगुरु
और कुशास्त्र । सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का सही स्वरूप न समझ पाने के कारण ही यह गलत मार्ग अपना लेता है। इसलिए उन्होंने इनका विस्तृत वर्णन किया है।
वे किसी व्यक्ति विशेष को कुदेब, कुगुरु या कुधर्म नहीं कहते वरन् अदेव में देवबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि एवं अधर्म में धर्मबुद्धिकुदेव, कुगुरु और कुधर्म हैं। उन्होंने कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और कुधर्म की प्रालोचना करते हुए मात्र जनेतर दर्शनों की ही नहीं वरन् जैन दर्शन व उसके अन्तर्गत आनेवाले भेद-प्रभेदों में उत्पन्न विकृतियों की समान रूप से पालोचना की है। जैनेतर दर्शनों पर संक्षिप्त में सामान्य रूप से विचार करने के उपरान्त जैन दर्शन में विशेषकर दिगम्बर जैनियों (वे स्वयं दिगम्बर जैन थे) में समागत विकृतियों की विस्तृत समीक्षा उन्होंने की।
जनेतर दर्शनों में उन्होंने सर्वव्यापी प्रद्वैत ब्रह्म, सृष्टि कर्तृत्ववाद, मायावाद, अवतारवाद, भक्तियोग, ज्ञानयोग, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, जैमिनी, बौद्ध, चार्वाक, मुस्लिम मत, एवं इनके ही अन्तर्गत ब्रह्म से कुल प्रवृत्ति, यज्ञ में पशुहिंसा, पवनादि साधन द्वारा ज्ञानी होना, आदि विषयों पर विचार किया है । श्वेताम्बर जैन मत को भी उन्होंने अन्य मत विचार वाले अधिकार में रखा है तथा उसके सम्बन्ध में विचार करते हुए ढूंढक मत पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। अन्य मत-मतान्तरों के अतिरिक्त लोकप्रचलित सूर्य, चन्द्र, ग्रह, गो, सर्प, भूत-प्रेत-व्यन्तर, एवं स्थानीय गणगौर, सांझी, चौथि, शीतला, दिहाड़ी, तथा मुस्लिमों में प्रचलित पीर-पैगम्बर आदि तथा शस्त्र, अग्नि, जल, वृक्ष, रोड़ी आदि की उपासना पर भी अपने तर्कसंगत विचार प्रस्तुत किए हैं।