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वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार
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कार्य सहज ही सधें तो सधैं, पर उनके लक्ष्य से धर्म साधन करना ठीक नहीं है । उक्त सम्बन्ध में पंडित टोडरमल ने लिखा है :
"जो आप तो किछू श्राजीविका आदि का प्रयोजन विचारि धर्म नाही साधे है, ग्रापक धर्मात्मा जानि केई स्वयमेव भोजन उपकारादि करें हैं, तो किछू दोष है नाहीं । बहुरि जो आप ही भोजनादिक का प्रयोजन विचारि धर्म साधं है, तो पापी है ही ।अर आप ही आजीविका आदि का प्रयोजन बिचारि बाह्य धर्म साधन करें, जहाँ भोजनादिक उपकार कोई न करे, तहाँ संक्लेश करें, याचना करें उपाय करें वा धर्म साधना विषे शिथिल होय जाय, सो पापी ही जानना ।"
कुल परम्परा, देखादेखी, प्राज्ञानुसारी एवं लोभादि के अभिप्राय से धर्म साधना करने वाले व्यवहाराभासी जीवों की प्रवृत्ति का पंडित टोडरमल ने बड़ा ही मार्मिक चित्र खींचा है :
" तहाँ केई जीव कुल प्रवृत्ति कार वा देख्यां देखी लोभादि का अभिप्राय करि धर्म साधे है, तिनिक तो धर्मेदृष्टि नाहीं । जो भक्ति करें हैं तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि फिर्या करें है। अर मुखतें पाठादि करें हैं वा नमस्कारादि करें हैं। परन्तु यहु ठीक नाहीं मैं कौन हूँ, किसकी स्तुति करूँ हूँ, किस प्रयोजन के अर्थि स्तुति करूँ हूँ, पाठ विषे कहा अर्थ है, सो किछु ठीक नाहीं । बहुरि कदाचित् कुदेवादिक की भी सेवा करने लगि जाय । तहाँ सुदेव, सुगुरु, सुशास्त्रादि वा कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रादि विषै विशेष पहिचान नाहीं । बहुरि जो दान दे है, तौ पात्र अपात्र का विचार रहित जैसे अपनी प्रशंसा होय तैसे दान दे है । बहुरि तप करें है तो भूखा रहने करि महंतपनी होय सो कार्य करें है । परिणामनि की पहिचान नाहीं । बहुरि बतादिक धारें है, तहाँ बाह्य क्रिया ऊपर दृष्टि हैं । सो भी कोई सांची क्रिया करें है। कोई झूठी करे है। अर अंतरंग रागादि भाव पाइए है, तिनिका विचारही नाहीं वा बाह्य भी रागादि पोषने का साधन करें है । बहुरि पूजा प्रभावना आदि कार्य करें है । तहाँ जैसे लोक विखें बड़ाई होय वा विषय कषाय
' मो० मा० प्र०, ३२२