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अर्का-विषय और बार्शनिक विचार
प्रायः व्यवहार नय की मुख्यता से कथन किया जाता है । कहीं-कहीं निश्चय सहित व्यवहार का भी उपदेश होता है' । व्यवहार उपदेश में तो बाह्य क्रिया की ही प्रधानता रहती है, किन्तु निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों के सुधारने पर विशेष बल दिया जाता है।
यद्यपि कषाय करना बुरा ही है तथापि सर्व कषाय छूटते न जान कर चरणानुयोग में तीव्र कपाय छोड़ कर मंद कषाय करने का भी उपदेश दिया जाता है, किन्तु पुष्टि प्रकषाय भाव कीही करते हैं। तीय कषायी जीवों को कषाय उत्पन्न करके भी पाप कायों से विरक्त कर धर्म कार्यों की ओर प्रेरित करते हैं 1 जैसे पाप का फल नरकादि के दुःख दिखा कर भय उत्पन्न कराते हैं और स्वर्गादिक के सुख का लोभ दिखा कर धर्म की ओर प्रेरित करते हैं। । बाह्याचार का समस्त विधान चरणानयोग का मूल वर्ण्य-विषय है। परिणामों की निर्मलता के लिए वाह्य व्यवहार की भी शुद्धि आवश्यक है। व्रव्यानुयोग
द्रव्यानुयोग में षट् द्रव्य, सप्त तत्व और स्वपर-भेदविज्ञान का वर्णन होता है । द्रव्यानयोग में प्रत्येक कथन सबल युक्तियों से सिद्ध व पुष्ट किया जाता है एवं उपयुक्त उदाहरणों द्वारा विषय स्पष्ट किया जाता है। पाठक को विषय हृदयंगम कराने के लिए विषय की पुष्टि में प्रावश्यक प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं; पाटक की तत्सम्बन्धी समस्त जिज्ञासाओं का तर्कसंगत समाधान प्रस्तुत किया जाता है। क्योंकि इस अनयोग का प्रयोजन वस्तुस्वरूप का सच्चा श्रद्धान तथा स्वपर-भेदविज्ञान उत्पन्न कर बीतरागता प्राप्त करने कीप्रेरणा देना है। इसमें जीवादि तत्त्वों का वर्णन एक विशेष दृष्टिकोण से किया ' मो० मा०प्र०,४०७ २ वहीं, ४०६ ३ वही, ४११ भ चही, ४१२ ५ वही, ४२३