________________
वयं-विषय और वार्शनिक विचार
२.५ अहिंसा को जीवन में उतारने के स्तर दो हो सकते हैं । हिसा तो हिसा ही रहेगी। यदि श्रावक पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो अल्प हिंसा का त्याग करे, पर जो हिंसा वह छोड़ न मके, उसे अहिंसा तो नहीं माना जा सकता है । यदि हम पूर्णनः हिमा का त्याग नहीं कर सकते हैं तो अंशतः त्याग करना चाहिए । यदि वह भी न कर सकें तो कम से कम हिंसा को धर्म मानना और कहना तो छोड़ना ही चाहिए । शुभ राग, राग होने से हिंसा में प्राता है और उसे धर्म नहीं माना जा सकता।
एक प्रश्न यह भी संभव है कि तीव्र राग तो हिंसा है पर मंद राग को हिंसा क्यों कहते हो? जब राग हिंसा है तो मंद राय अहिंसा कैसे हो जावेगा, वह भी तो राग की ही एक दशा है। ग्रह बात अवश्य है कि मंद राग मंद हिंसा है और तीव्र राग तीन हिंसा है। अतः यदि हम हिसा का पूर्ण त्याग नहीं कर सकते हैं तो उसे मंद तो करना ही चाहिए। राग जितना घटे उतना ही अच्छा है, पर उसके सद्भाव को धर्म नहीं कहा जा सकता है । धर्म तो राग-द्वेषमोह का अभाव ही है और वही अहिंसा है, जिसे परम धर्म कहा जाता है।
राग-द्वेष-मोह भावों की उत्पत्ति होना हिसा है और उन्हें धर्म मानना महा हिंसा है तथा रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही परम अहिंसा है और रागादि भावों को धर्म नहीं मानना ही अहिंसा के सम्बन्ध में सच्ची समझ है । भावों का तात्विक विश्लेषण
क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य आदि विकारी मनोभाव राग-द्वेष-मोह के ही भेद हैं । अतः यह सब हिंसा के ही रूप हैं । पूर्ण अहिंसक बनने के लिए इनका त्याग आवश्यक है। इनकी उत्पत्ति के कारणों एवं नाश के उपायों पर विचार करते हुए पंडित टोडरमन्न ने इनका मनोवैज्ञानिक विश्लेपण प्रस्तुत किया है।
---...
१ मो० मा० प्र०,५६