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वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
प्रत्येक दिगम्बर जैन उक्त छंद को शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय प्रति दिन बोलते हैं । कुन्दकुन्दत्रयी ५ पर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने गम्भीर टीकाएं लिखी हैं। उक्त ग्रन्थों पर प्राचार्य जयसेन की भी संस्कृत भाषा में टीकाएं उपलब्ध हैं।
पं० टोडरमल ने दोनों श्रुतस्कंधों का गम्भीर अध्ययन किया तथा दोनों प्रकार के ग्रन्थों की टीकाएं लिखने का उपक्रम किया था। उन्होंने पो मौलिक प्राथों में जो दोनों पररात्रों में विवेचित विषयों का विस्तृत व गम्भीर विवेचन किया है। इस अध्याय में उक्त दोनों श्रुतस्कंध परम्परागों के परिप्रेक्ष्य में पं० टोडरमल के दार्शनिक एवं अन्य विचारों का अध्ययन प्रस्तुत करेंगे।
पं० टोडरमल ने कहीं भी यह दावा नहीं किया है कि उन्होंने कुछ नया क्रिया है । उनका उद्देश्य तो वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित आत्महितकारी वस्तस्वरूप जनसाधारण तक पहुँचाना था। अत: उनके स्वर में वे तथ्य अधिक मुखरित हुए हैं जिनके कारण सामान्यजन आत्महितकारी वस्तुस्वरूप समझने के लिए नालायित और प्रयत्नशील रहते हुए भी कहीं न कहीं उलझ कर रह जाते हैं । वे कौन से स्थल हैं तथा वे किस प्रकार की भूलें हैं जो वस्तु के समझने में बाधक बनती हैं, उन्हें उन्होंने खोज-खोजकर निकाला है। उनके कारणों की खोज की है। उनका वर्गीकरण किया, विश्लेषण किया एवं उन भूलों से बचने के उपायों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने उन भूलों को दो भागों में विभाजित किया है :(१) निश्चय और व्यवहार सम्बन्धी अज्ञान के कारण होने
वाली भूलें। (२) चारों अनुयोगों के कथन-पद्धति सम्बन्धी अज्ञान के
कारण होने वाली भूले | इनके संबंध में जैन दर्शन में वरिणत मूलतत्त्वों के संदर्भ में यथास्थान विचार करेंगे।
१ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय को कुन्दकुन्दत्रयी कहा जाता है।