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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व
आत्महितकारी तत्त्वोपदेश करने वाली, जीवों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में ले जाने वाली, पूर्वापर विरोध से रहित सच्चे देव की वाणी को सच्चा शास्त्र कहते हैं। सच्चे देव वीतरागी और पूर्णज्ञानी होते हैं, अतः उनकी वाणी भी वीतरागता की पोषक और पूर्णता की ओर ले जाने वाली होती है।
सच्चे शास्त्र के सम्बन्ध में सबसे अधिक विचारणीय बात यह है कि सर्वज्ञ परमात्मा भगवान महावीर को हुए २५०० वर्ष हो गए हैं, उनके बाद आज तक की परम्परा में शास्त्रों की प्रामाणिकता किस आधार पर मानी जा सकती है ? क्या उसमें इतने लम्बे काल में विकृति सम्भव नहीं है ? उक्त प्रश्न पर पंडित टोडरमल ने विस्तार से विचार किया है । जैन शास्त्रों की प्रामाणिकता पर विचार करते हुए कालवश पाई हुई विकृतियों को उन्होंने निःसंकोच स्वीकार किया है, किन्तु साथ-साथ मूलतत्त्वों के वर्णन की प्रामाणिकता को सयुक्ति संस्थापित किया है । वे लिखते हैं :
"ऐसे विरोध लिए कथन कालदोष नै भए हैं। इस काल विर्षे प्रत्यक्षज्ञानी वा बहुश्रुतनि का तो अभाव भया अर स्तोकबुद्धि ग्रन्थ करने के अधिकारी भए । तिनकै भ्रम से कोई अर्थ अन्यथा भास ताको तैसें लिखें अथवा इस काल विर्षे कई जनमत विर्षे भी कषायी भए हैं सौ तिनमें कोई कारगा पाय अन्यथा लिख्या है। ऐसे अन्यथा कथन भया है, तात जैन शास्त्रनि विर्षे विरोध भासने लागा ।"
यदि अप्रयोजनभूत पदार्थों में कहीं कोई अन्यथा कथन प्रा भी गया हो तो उससे पात्मा के हित-अहित से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों में विकृति पाने की कोई सम्भावना नहीं है १ रत्नकरण्ड भ्यानकाचार, अ० १ श्लोक : २ मो० मा० प्र०, १५-२० 3 वही, ४४५ ४ वही, ४४५