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वयं-विषय और दार्शनिक विचार
सम्यग्ज्ञान
जीवादि सप्त तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । परस्पर विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे - वह सीप है या चांदी ? विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं । जैसे – सीप को चाँदी जान लेना । 'यह क्या है ? या 'कुछ है' केवल इतना अरुचि और अनिर्णयपूर्वक जानने को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे - आत्मा कुछ होगा।
जीवादि सप्त तत्त्वों का विस्तृत वर्णन जैन शास्त्रों में किया गया है। जैन शास्त्रों का वस्तुस्वरूप के कथन करने का अपना एक तरीका है, उसे जाने बिना उनका मर्म नहीं समझा जा सकता है । समस्त जिनागम में निश्चय व्यवहार रूप कथन है | निश्चय और व्यवहार ये दो नय के भेद हैं। जैनागम का रहस्य जानने के लिए इनका स्वरूप जानना अत्यन्त यावश्यक है। इनके सही स्वरूप को न समझ पाने के कारण अनेक प्रकार की भ्रान्तियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनका विस्तृत वर्णन पंडित टोडरमल ने किया है। निश्चय और व्यवहार नय
निश्चय नय भूतार्थ है, सत्यार्थ है, क्योंकि वह वस्तु के सत्य (शुद्ध) स्वरूप का उद्घाटन करता है। व्यवहार नय अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, क्योंकि वह वस्तु के असत्य (संयोगी, अशुद्ध) स्वरूप का कथन करता है | जैसे - जीव व देह एक हैं, यह कथन व्यवहार नय का है और जीव व देह एक नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं, यह कथन निश्चय नय का है । यहाँ जीव और शरीर के संयोग को देख कर ' पुम्यामिड्युपाय, श्लोक ३५ * न्यायदीपिका, २ ३ मो० मा० प्र०, २८३ ४ (क) समयसार, गामा ११ (ख) समयसार, ग्रामख्याति टीका, गाथा ११
(ग) पुरुषार्थसिझ्युपाय, श्लोक ५ १ मुमयसार, गाथा २७