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पंडित टोबरमल व्यक्तित्व और तत्व विवेचन हना है । इसी विभाग को लक्ष्य में रख कर आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की और उसको दो भागों में जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड में विभाजित किया । गोम्मटसार में षट्खण्डागम का पूर्ण निचोड़ पा गया है'।
सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य नेमिचन्द्र द्वारा रचित दो महाग्रन्थ और हैं, जिनके नाम हैं लब्धिसार और क्षपणासार । इन्हीं गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार व क्षपरणासार ग्रन्थों पर आगे चलकर वि० सं० १८१५ में पं० टोडरमल ने 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' नामक भाषाटीका की है, जो कि प्रथम श्रुतस्कंध परम्परा में पाती है। प्रथम श्रुतस्कंध परम्परा में जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न आत्मा की संसार-अवस्था का, गुरास्थान, मार्गणास्थान आदि का वर्णन होता है। यह कथन पर्यायाथिक नय की प्रधानता से होता है। इस नय को अशुद्ध द्रव्याथिक न. श्री रहते हैं पर इसे हो रयाग की भाषा में अशुद्ध निश्चय नय या व्यवहार नय कहा जाता है ।
द्वितीय श्रुतस्कंध में शुद्धात्मा का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। इसमें शुद्ध निश्चय नय का कथन है । इसे द्रव्याथिक नय भी कहते हैं । '
द्वितीय श्रुतस्कंध की उत्पत्ति कुन्दकुन्दाचार्य से होती है। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाड़ आदि ग्रन्थों की रचना की है । कुन्दकुन्दाचार्यदेव को दिगम्बर परम्परा में भगवान महावीर और इन्द्रभूति गौतम गरणधर के बाद तृतीय स्थान के रूप में स्मरण किया जाता है :
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दायो, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
. भा० सं० ज० यो०, ७९-८० २ स. चं० प्र०
समयसार, उपोद्घात्, १०