________________
१४४
. पंरित टोडरमल : व्यक्तित्व और करिव "तासू रतन दीवान नें, कही प्रीति धरि एह ।
करिए दीका पूरणा, उर धरि धर्म सनेह ।।" इस भाषाटीका के निर्माण का एकमात्र उद्देश्य प्रज्ञानी जीवों की आत्मा के सम्बन्ध में हई अनादिकालीन भूल मिटाना और आत्मज्ञान प्राप्ति का सहज साधन उपलब्ध कराना है, जैसा कि ग्रंथ की प्रशस्ति से स्पष्ट है।
पंडित दौलतराम कासलीवाल ने यह टीका मार्गशीर्ष शुक्ला २ वि० सं० १८२७ को समाप्त की। इसका प्रारम्भ निश्चित रूप से वि० सं० १८२४ के पहिले हो चुका था, क्योंकि इसे प्रारम्भ पंडित टोडरमल ने किया और उनकी उपस्थिति वि० सं० १५२४ के बाद सिद्ध नहीं होती। वि० सं० १८२१ में हुए इन्द्रध्वज विधान महोत्सव की पत्रिका में ब्र० रायमल ने पण्डित टोडरमल द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका, गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका, लब्धिसार-क्षपरणासार भाषाटीका, त्रिलोकसार भाषाटीका का और मोक्षमार्ग प्रकाशक का तो उल्लेख किया, पर इसका उल्लेख नहीं किया। अतः यह भाषाटीका वि० सं० १९२१ के बाद आरम्भ हुई प्रतीत होती है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक का सातवाँ अधिकार समाप्त करने के बाद तत्काल इस टीका का प्रारम्भ हो गया लगता है, क्योंकि मोक्षमार्ग प्रकाशक के पूरे सातवें अधिकार को पंडित टोडरमल ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय के मंगलाचरण में चार लाइनों में लिपिबद्ध कर दिया है । मंगलाचरण के रूप में उक्त छन्द की कोई उपयोगिता नहीं लगती, किन्तु सातवा अधिकार लिखने के उपरान्त उनके मस्तिष्क में बह विषय छा रहा था। वे उसे इस टीका के प्रारम्भ में रखने का
- ५ पु. भा. टी. प्रशास्ति, १२६ २ अट्ठारह सौ ऊपर संवत सत्ताईस । मास मंगसिर ऋतु शिशिर सुदि दोयज रजनीश।।
- पु. भा. टी० प्रशस्ति, १२६