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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशासन
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यह ग्रंथ विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखा गया है। प्रश्नोत्तरों द्वारा विषय को बहुत गहराई से स्पष्ट किया गया है। इसका प्रतिपाद्य एक गंभीर विषय है, पर जिस विषय को उठाया है उसके सम्बन्ध में उठने वाली प्रत्येक शंका का समाधान प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। प्रतिपादन शैली में मनोवैज्ञानिवता एवं मौलिकता पाई जाती है। प्रथम शंका के समाधान में द्वितीय शंका की उत्थानिका निहित रहती है। ग्रंथ को पढ़ते समय पाठक के हृदय में जो प्रश्न उपस्थित होता है उसे हम अगली पंक्ति में लिखा पाते हैं । ग्रंथ पढ़ते समय पाठक को आगे पढ़ने की उत्सुकता बराबर बनी रहती है।
_वाक्य रचना संक्षिप्त और विषय प्रतिपादन शैली ताकिक एवं गंभीर है। व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं है, पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं रहा है। लेखक विषय का यथोचित विवेचन करता हना आगे बढ़ने के लिये सर्वत्र ही आतुर रहा है । जहाँ कहीं विषय का विस्तार भी हुया है वहीं उत्तरोतर नवीनता आती गई है। वह विषय-विस्तार सांगोपांग विषय-विवेचना की प्रेरणा से ही हुआ है। जिस विषय को उन्होंने छुना उसमें 'क्यों' का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है। शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है ।
विषय को स्पष्ट करने के लिए समुचित उदाहरणों का समावेश है । कई उदाहरण तो सांगरूपक के समान कई अधिकारों तक चलते हैं। जैसे रोगी और वैद्य का उदाहरण द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम अधिकार के प्रारम्भ में आया है । अपनी बात पाठक के हृदय में उतारने के लिए पर्याप्त आगम प्रमाण, सैकड़ों तर्क तथा जैनाजैन
मो० मा० प्र०, ३१ २ वही, ६५ ३ वही, १०६ ४ वही, १३७