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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व वैदिक पद्धतियों का प्रवेश हुआ। पद्मावती आदि देवियों को काली, दुर्गा या लक्ष्मी का ही रूपान्तर माना जाने लगा।' भट्टारकों की मंत्र-तंत्र साधना पर तांत्रिकों का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है । मंत्र और तंत्र ही एक मात्र प्रात्मरक्षा के उपाय मान लिये गए थे।' भट्टारक लोग मंत्रों और तंत्रों के चमत्कार दिखाकर लोगों को चमत्कृत करने लगे थे तथा इन्हीं माध्यमों से अपने प्रभाव का विस्तार कर रहे थे।३ तांत्रिकों का अन्य धर्मों पर प्रभाव स्पष्ट करते हुए डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - "तंत्रों का यह प्रभाव केवल ब्राह्मणों पर ही नहीं पड़ा अपितु जैन और बौद्ध सम्प्रदायों पर भी यह प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। वौद्ध धर्म का अन्तिम रूप तो इस देश में तांत्रिक ही रहा ।"
जब भारतवर्ष में मंदिर तोड़े जा रहे थे एवं मूर्तियों खंडित की जा रही थीं, तब प्राय: सभी धर्मों में मूर्ति पूजा विरोधी सम्प्रदाय उठ खड़े हुए थे । कबीर की यह आवाज -
"पाहून पूज हरि मिले, तो मैं पूजू पहार ।
तातें यह चक्की भली, पीस खात संसार ।। युग की आवाज बन रही थी। तब अर्थात् १५ वौं, १६ वीं शती में उक्त जैन सम्प्रदाय में भी एक मूर्ति पूजा विरोधी क्रांति ने जन्म लिया । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लोकाशाह द्वारा मुर्ति पूजा विरोधी उपदेश प्रारम्भ हुआ, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय की स्थापना हई। यह सम्प्रदाय द दिया नाम से भी पुकारा जाता है। इस सम्प्रदाय में मूर्ति पूजा का विरोध किया गया है। इनके मंदिर नहीं किन्तु स्थानक होते हैं और ये मूर्ति की नहीं किन्तु आगमों की प्रतिष्ठा करते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ४५ आगमों में से कोई
१ भ० सं० प्रस्तावना, १७ २ बु०वि०, छंद १३१६-२२
भ० सं० प्रस्तावना, १५ ४ मा का० ध० साह