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रचनात्रों का परिचयात्मक अनुशीलन
७ पंडित टोडरमल ने पूर्ण सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की पीठिका एक साथ लिखी और वह स्वभावतः प्रथम ग्रंथ गोम्मटमार जीवकाण्ड भाषाटीका के आरम्भ में लिखी व छापी गईं, अतः लोग उसे 'गोम्मटसार भाषाटीका पीठिका' ही कहते रहे । इसी प्रकार लब्धिसार भापाटीका के साथ ही क्षपणासार भाषाटीका लिखी गई, जिसे उन्होंने स्वयं 'क्षपणासार गभित लब्धिसार भाषाटीका' कहा, वे छपी भी इसी रूप में, अतः वे अकेले 'लब्धिसार भाषाटीका' नाम से चल पड़ीं । लब्धिसारक्षपणासार भाषाटीका, सम्यग्ज्ञानचंद्रिका का अंतिम भाग था, अतः ग्रंथ की अंतिम ६३ छन्दों वाली प्रशस्ति सहज ही उसके अंत में लिखी गई। अतः उक्त प्रशस्ति को 'लधिसार भापाटीका प्रशस्ति' भी कहा व लिखा जाता रहा।
ऐसी स्थिति में हम उक्त पीठिका व सर्वात की वृहद् प्रशस्ति को सम्यग्ज्ञानचंद्रिका पीठिका व प्रशस्ति कहना सही मानते हैं तथा हमने उक्त पीठिका व प्रशस्ति का प्रयोग इसी नाम से किया है। किन्तु पंडितजी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसारक्षपणासार की भापाटोकानों की छोटी-छोटी प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं, जिन्हें हमने गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषाटीका प्रशस्ति प्रादि कहना उपयुक्त समझा है तथा संदर्भो में भी पृष्ठ संख्या देन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए गोम्मटसार भाषाटीका आदि नामों का ही यथास्थान प्रयोग किया है । सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की प्रादि से अंत तक लगातार पृष्ठ संख्या न होने से ऐसा करना आवश्यक हो गया।
गोम्मटसार जैन समाज का एक बहुत ही सप्रसिद्ध सिद्धान्त-ग्रंथ है जो जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नाम के दो बड़े भागों में विभक्त है । वे भाग एक प्रकार से अलग-अलग ग्रंथ समझे जाते हैं, वे अलग-अलग मुद्रित भी हुए हैं। जीवकाण्ड की अधिकार संख्या २२ और गाथा संख्या ७३३ है और कर्मकाण्ड की अधिकार संख्या ६ एवं गाथा संख्या ६७२ है । इस समूने ग्रंथ का दूसरा नाम 'पंचसंग्रह भी है',
१ पु जै० वा सू० प्रस्तावना, ६८