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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तृव
'समवशरण' कहते हैं | इसकी रचना इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर करता है और इसमें देव, मनुष्य, स्त्री, पुरुष, पशु-पक्षी यादि सभी के बैठने की पूरी-पूरी व्यवस्था रहती है। भगवान की दिव्यवाणी सुनने का लाभ सभी प्राणियों को समान भाव से प्राप्त होता है। अतिशययुक्त भगवान की वाणी को सभी अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं ।
ग्रंथ का आरंभ मंगलाचरण रूप दोहा से किया गया है. जिसमें इष्ट देव का स्मरण कर 'समोसरण वर्णन' के लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। यह वन दो भागों में विभक्त है :
( १ ) समोसरर वर्णन (२) विहार वर्णन
समोसा वर्णन में समोसरप का विस्तार, लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई, द्वार, सोपान, मानस्तम्भ, कोट, खाइयाँ, उपवन, बावड़ी, नृत्यशालायें. सभा भवन और अष्ट प्रातिहार्य तथा समोसरण में विद्यमान अतिशयों का विस्तृत वर्णन है ।
विहार वर्णन में तीर्थकर भगवान के बिहार (गमन), समोसरा के विघटन मार्ग की स्वच्छता, निष्कंटकता, अनेक अतिशययुक्तता, बिहार का कारण आदि का वर्णन है ।
ग्रंथ की समाप्ति से बिहार सहित समोसरण का वर्णन सम्पूर्णम्' वाक्य द्वारा की गई है ।
यह रचना वर्णनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। आज के वर्णनात्मक निबंधों का यह करीब २१० वर्ष पुराना रूप है। अपने प्रारंभिक रूप में होने पर भी इसमें शिथिलता और अव्यवस्था नहीं पाई जाती है । प्रत्येक वस्तु का बारीकी से वर्णन किया गया है, फिर भी प्रवाह में रुकावट नहीं आई है । भाषा सहज, सरल एवं प्रवाहमयी है । किसी भी वर्णनात्मक निबंध की विशेषता इस बात में है कि जिसका वन किया जा रहा हो, उसका मित्र पाठक के ध्यान में या जावे | यह रचना इस कसौटी पर खरी उतरती है ।