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पूर्व-धानिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां समय यह संघर्ष अपने चरम बिन्दु पर था । भट्टारकीय प्रवृत्ति के विद्वान अस्तित्व के संघर्ष में लगे हुए थे । वि० सं० १८१८ में, जब पंडित टोडरमल ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'सम्यगजानचन्द्रिका' समाप्त की थी, तब 'तेरहपथ खंडन' नामक पुस्तक जयपुर में ही लिखी गई । इसी प्रकार वि० सं० १८२१ में जब पंडित टोडरमल के निर्देशन में 'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव' हो रहा था- जिसमें सारे भारतवर्ष के लाखों जैनी आये थे एवं जिसका विस्तृत वर्णन ज. रायमल द्वारा लिखित 'इन्द्रध्वज विधान महोत्सव आमंत्रण पत्रिका'' में मिलता है - तब इसी जयपुर में पं० बखतराम साह मिथ्यात्व खंडन' नामक ग्रंथ में तेरहपंथ का खंडन बड़ी ही कटुता से कर रहे थे । उन्होंने लिखा है :
"कपटी तेरापंथ है जिनसौं कपट करत"३ उस समय पं० टोडरमल और उनके सहयोगी कई विद्वान् महान ग्रंथों का निर्माण कर रहे थे । सारे भारतवर्ष में तेरापंथ का डंका बजाने वाले साधर्मी भाई व० रायमल, अनेक पुराण-ग्रंथों के जनप्रिय वचनिकाकार पं० दौलत राम कासलीवाल, बीमों न्याय व सिद्धान्त-ग्रंथों के समर्थ टीकाकार पं० जयचंद छाबड़ा आदि विद्वान् पं० टोडरमल के सहयोग से तैयार हार थे । इन सभी विद्वानों ने जनभाषा में रचनाएँ की। उक्त महान् प्रयासों के फलस्वरूप यह पंथ देशव्यापी हो गया और इसके प्रभाव से मठाधीशों की प्रतिष्ठा का एक तरह से अन्त ही हो गया।
' परिशिष्ट १ २ उक्त कथन पूरा इस प्रकार है :--
जैसे बिल्ली ऊँदरा, वैर भाव को संग । तसं बंग प्रगट है, तेरापंथ निसंग ।। बीसपंथ ते निकालकर, प्रगट्यो तेरापंथ । हिन्दुन मैं से ज्यों कढ़यौ, पवन लोक को पंथ ।। हिन्दुलोक की ज्यों किया, यवन न मान लोक । तैसें तेरापंथ भी, किरिया छोडी छोक ।। कपटी तेरापंथ है, जिससौ कपट करत । गिरी पहोड़ी दीप कई, खोटो मत को पंथ ।।