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णमोकार प्रन्य
रत्नकरण्डश्रावकाचारोक्तं श्लोकम् क्षत्पिपासाजरातंक, जन्मांतक भयस्मया। न राग द्वेष मोहाइच, यस्याप्ताः स प्रकीत्यतं ॥धा
पुनश्च दोहा जनम जरा तिरषा क्षुधा, विस्मय प्रारत खेद । रोग शोक मन मोह भय, निद्रा चिता स्वेद ॥१॥ राग द्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष ।
नाहि होत प्ररहन्त के, सो छवि सायक मोष ॥२॥ प्ररहल भगवान के (१) जन्म, (२) जरा, (३) तृषा, (४) क्षुधा, (५) विस्मय, (६) अरति, (७) खेद, (८) रोग, (६) मोक, (१०) मद, (११) मोह, (१२) भय, (१३) निद्रा, (१४) चिंता, (१५) स्वेद, (१६) राग, (१७) द्वेष और (१८) मरण । ये अठारह क्षोप नहीं होते हैं।
भावार्थ-सत्यार्थ देव के ये अठारह दोष नहीं होते हैं । ये अठारह दोष सन्म ही संसारी जीवों को लगे हुए हैं और जो यह दोष देव में भी हों तो वह देव काहे का । अन्न: सध्यार्थ देव अर्थात् ईश्वर उपरोक्त अष्टादश दोष रहित है। यथार्थ में विचार किया जाए तो प्राप्तता जो पूर्वोक्त दोप रहित और जन्मातिशय आदि गुण युक्र हो उस ही के सम्भव है और जो राग द्वेष सहित देव हैं वे कहने मात्र के ही देव हैं । दोषों में प्रथम दोष जन्म दोष कहा है।
(१) जन्म दोष---उसके दुःख प्रत्यक्ष दीखते हैं। कैसा है जन्म दोष ? माता का रुधिर और पिता का वीयं -इन दोनों के सम्बन्ध विशेष से इस शरीर की उत्पत्ति होती है। और माता जो पाहार करती है उसके रस से यह वृद्धि को प्राप्त होता है। कारागार के समान उदर में नव मास पर्यन्त दुःख भोग कर इसका निकलना होता है। कारागार में तो चारों ओर से पवन और
और भी नाना प्रकार के चरित्र देखने में पाते हैं और सीमा के मध्य हस्तपाद प्रादि अंगों का यथेच्छित हिलाना-डुलाना हो सकता है, परन्तु उदर रूपी कारागार के मध्य हस्त, पाद, ग्रीवा प्रादि के संकुचित रूप से बहुत दुःख से रहना होता है। कारागार में तो रहने की जगह भी मलमूत्र आदि से दुर्गन्ध रहित निर्मल होती है, पर उदर रूपी कारागार के मध्य मल-मूत्र प्रादि की दुर्गन्ध तथा बाल के समान मांस और रुधिर से ब्याप्त एक प्रकार की थैली के मध्य रहना होता है। वहरि नव मास पूर्ण होने पर प्रत्यन्त दुस्सह कष्ट के साथ बाहर निकलता है। पुनः विचार करो कि बालपने में कैसी-कैसी असाध्य बाधाएँ सहन करनी पड़ती हैं। ऐसा जन्म रूप दोष यथार्थ तत्त्व प्ररूपा सत्यार्थ देव प्राप्त के नहीं होता है।
(२) जरा दोष-जरा अर्थात् बुढापे के आने पर कुन्द के पुष्प के समान श्वेत दशनावलि अर्थात् दांतों की पंक्ति तो रहती ही नहीं। जैसे कृतघ्नी अपना कार्य सिद्ध होने के पश्चात् दूर हो जाता है वैसे ही दौत भी कृतघ्नी के समान दूर हो जाते हैं और हाड़ों की सधियाँ ढीली हो जाती है। मानों देह बुढ़ापे को प्राता देखकर भय मानकर कोपती है और काया रूपी नगरी ऐसी दीखती है मानों जरा रूपी तस्कर द्वारा लूट ली गई हो अतः वह पहचान में नहीं पाती है । बालों का रंग पलट जाता है और वे श्वेत हो जाते हैं । शरद ऋतु में जैसे फले हए डाभ (कांस) वर्षा ऋतु का बुढ़ापा प्रगट करते हैं वैसे ही