________________ 22 नैषधीयचरिते हो जाने पर दोनों अवस्थायें क्या परस्पर प्रेम से नहीं रह रही हैं ? रह रही ही हैं। किन्तु काकु द्वारा निषेध को विधि-रूप से लेने से विरोध-वाचक 'अपि' शब्द की संगति नहीं बैठती। वह व्यर्थ सिद्ध हो जाएगा। अतः हमारे विचार से यहाँ निषेध अर्थ लेने में ही स्वारस्य बैठता है। सीमा-बंदी होने पर भी वे सन्तुष्ट नहीं हैं क्योंकि दोनों शरीर पर अधिकाधिक अधिकार जमाना चाह रही हैं। बचपन दमयन्ती के शरीर को छोड़ना नहीं चाहता जब कि यौवन आकर उसपर पूरा अधिकार माँग रहा है। बचपन और यौवन का यह परस्पर संघर्ष वयःसन्धि कहलाता है। चाण्डूपंडित, विद्याधर और जिन ने मी 'सीम्नी' के स्थान में 'सोम्नि पाठ मानकर निषेध-परक ही अर्थ किया है। इसी तरह के भाव के लिए छठे सग का श्लोक 38 भी देखिए, जिसमें यौवनद्वार पर खड़ा हो रोम-रूपी डंडा लिये दमयन्ती को रोक रहा है कि बस बचपन के खेल अब छोड़ दो। शरीर पर रोम उग जाना यौवन की निशानी है। यहाँ प्रस्तुत जड़ शिशुता और यौवन पर अप्रस्तुत परस्पर अधिकार के सम्बन्ध में विवाद करते हुए दो चेतन व्यक्तियों का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति और उसके साथ सीमा-निर्धारण के कारण के होते हुए भी सन्तोष-रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति का संकर है / शब्दालंकारों में 'विधि' विधि' शब्दों में यमक, 'भज्य' 'रज्य' में 'अज्य, अज्य' की तुकबन्दी से षदगत अन्त्यानुप्रास एवं अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अपि तद्वपुषि प्रसपतोगमिते कान्तिझरैरंगाधताम् / स्मरयौवनयोः खलु द्वयोः प्लवकुम्भौ भवतः कुचावुमौ // 31 // अन्वयः-कान्ति-झरैः अगाधताम् गमिते अपि तदपुषि प्रसर्पतोः द्वयाः स्मर-यौवनयोः उभौ कुचौ प्लव-कुम्मो मवतः खलु / / 32 / / टीका-कान्तिः शोमा लावण्यमित्यर्थः तस्या झरैः प्रवाहैः (प.तत्पु० ) अगाधतां दुरवगाहताम् अतलस्पर्शत्वमिति यावत् गांमते प्रापितेऽपि तस्या दमयन्त्या वपुषि शरीरे ( 10 तत्पु० ) प्रसर्पतो. प्रगच्छतोः द्वयोः स्मरः कामश्च यौवनं तारुण्य चेति तयोः (द्वन्द्व ) उमौ द्वौ कुचो स्तनौ सवार्थ तरणार्थ कुम्भौ घटो (च. तत्पु० ) भवतः खल्वित्युत्प्रेक्षायाम् / अतिलावण्य-भारते दमयन्त्याः शरीरे यौवनेन कामेन च पदं कृतम् , तस्याः कुचौ च तल्लावण्य-प्रवाहे तरीतुं यावन-कामयोः कृते कुम्माविक प्रतीयेते स्मेति मावः / / 31 // व्याकरण-गमिते गम्+पिच्+क्तः ( कर्मणि ) / यौवनम् यूनः अथवा युक्त्या माव इति युवन् + अण ( मावे ) / प्लवः 'लु+अच् ( मावे ) अनुवाद-लावण्य के प्रवाहों द्वारा अगाध बना दिये जाने पर भी उस ( दमयन्ती ) के शरीर में आगे-आगे बढ़ रहे काम और यौवन-दोनों के लिए ( उसके ) दोनों कुच ऐसे लगते हैं मानो तैरने के घड़े हों // 31 // टिप्पणी-'द्वयोः' 'उभौ-नारायण ने शंका उठाई है कि 'स्मर-यौवनयोः' और 'कुचौ' में द्विवचन होने से ही द्वित्व सिद्ध हो जाता है, तो 'दयोः' और 'उमौ' की क्या प्रयोजनीयता है ? इसका स्वयं वे यह उत्तर देते हैं-'सदासहवासित्व-परस्परमिलितत्वप्रदर्शनार्थमुत्तमित्यवगन्तव्यम्'