________________ द्वितीयसर्गः 21 व्याकरण-दुर्गस्थ दुर्ग+/स्था+कः ( कर्तरि ) / मृणाल जित्+मृषाल+/जि+ क्विप ( कर्तरि ) सरोरुहाम सरसि रोहन्तीति सरस् +/रुह् + क्विप् ( कर्तरि ) गृहयातुः गृह्णातीति गृह +पिच्+आलुच् ( कर्तरि ) / अनुवाद-भुजाओं द्वारा जल-रूपी किले में रहने वाले मृणालों को जीतने वाली वह ( दमपन्ती ) ठोक तुम्हारे सदृश है ( तुम भी भुजाओं द्वारा ' परिखा-) जल से घिरे किलों में रहने वाले शत्रु को जीतने वाले हो)। वह करों ( हाथों ) की लीला (विलास ) से मित्र ( सूर्य ) में निरत कमलों की श्री ( शोभा ) को ले लेती है [ तुम भी कर ( राजस्व ) की लीला ( आधान ) से मित्रों ( सुहृदों ) को साथ रखे होते हुए भी शत्रुओं की श्री ( सम्पत्ति ) को ले लेते हो ] // 29 // टिप्पणी-बात इतनी ही है कि दमयन्तो की भुजायें अपने गोरेपन और सुकुमारता में मृणालों को और हाथ शोभा में कमलों को परास्त किये हुए हैं, किन्तु कवि ने श्लेष का पुट देकर बड़ा वैचित्र्य भर दिया है। दमयन्ती के साथ लगने वाले विशेषण वह राजा पर मी लगा बैठा है भले ही वहाँ अर्थ और ही है। नल पर दुर्गव का आरोप होने से रूपक, सरोरुहों की श्री सरोरुहों में ही रहती है, वह करों में नहीं आ सकतो, इसलिए 'श्री की तरह श्रो' इस प्रकार बिम्ब-प्रतिविम्ब भाव होने से निदर्शना, अपि शब्द से अर्थापत्ति, सम का सम के साथ योग होने से सम, और द्वयर्थक होने से श्लेष-इन समो अलकारों का परस्पर अङ्गाङ्गिमाव संकर है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। वयसी शिशुतातदुत्तरे सुदशि स्वामिविधि विधिसुनी। विधिनापि न रोमरेखया कृतसीम्नी प्रविभज्य रज्यतः // 30 // अन्वय-(हे राजन् ! सुदृशि स्वाभिविधिम् विधिसुनी शिशुता-तदुत्तरे वयसी विधिना रोमरेखया प्रविमज्य कृत-सीम्नो अपि न रज्यतः / . टीका-(हे राजन् !) सु मुष्ठ दृशौ नयने यस्याः तथाभूतायाम् ( प्रादि ब० वी०) सुनयनयां दमयन्त्यामित्यर्थः स्वस्य आत्मनः अभिविधि व्याप्तिम् (10 तत्पु० ) विधिसुनी विधातुमिच्छनी शिशुता बाल्यं च तस्या उत्तरम् उत्तरकालोनं यौवनं चेति (द्वन्द) वयसो अवस्थे, दमयन्ती-शरीरमधिकृत्य बाल्यं यौवनं चाहमहमिकया स्वाधिकार स्थापयितुमिच्छत इति मावः, विवाद-समाप्त्यर्थ विधिना ब्रह्मपा रोम्पा शरीरोद्भूतानां लोम्नां रेखथा लेखया प्रविमज्य विभागं कृत्वा कृता विहिता सोमा मर्यादा ययोस्तथाभूतेऽपि सती न रज्यतः परस्परमनुरागं न कुरुतः, प्रसन्ने न स्त इत्यर्थः / एतेन दमयन्त्या वयःसन्धिरुतः // 30 / / ज्याकरण-अभिविधिः अभि+वि+Vा+कि। विधिस्सुनी वि+धा+सन्+उ (प्र० दिव० नपुं०)। सीम्नी में विकल्प से 'सीमन्' के अकार का लोप हो रहा है। अनुवाद-(हे राजन् ! ) सुन्दर नयनों वाली ( दमयन्ती) में अपनी व्याप्ति अर्थात् अधिकार करना चाहने वाली शिशुता और उसके बाद की अवस्था-तरुप्पाई-ब्रह्मा द्वारा रोमों की रेखा से विमाग करके सीमा-बद्ध का हुई मी प्रेम से नहीं रह रही है / / 30 / / टिप्पणी-'न रज्यतः' मल्लिनाथ और नारायण यहाँ काकु मान रहे हैं अर्थात सीमा निश्चित