________________ द्वितीयसर्गः अन्वयः-सुषमाविषये परीक्षणे निखिलम् पद्मम् तन्मुवात् अभाजि, ( अतएव ) मङ्गलक्षणम् सलिलोन्मज्जनम् अद्य अपि न उज्झति स्फुटम् / टीका-सुषमा परमा शोभा परमसौन्दर्यमिति यावत् ( 'सुषमा परमा शोभा' इत्यमरः ) विषयः पस्मिन् तथाभूते (ब० वी०) परीक्षणे दिव्य-परोक्षायाम् अर्थात् सुषमा पास्याधिका दमयन्त्या मुखस्य वाऽधिकेति प्रतियोगितायां सत्यां निखिलं समस्तं पद्म कमलं तस्या दमयन्त्या मुखात् वदनात् (10 तत्पु०) अभाजि भग्नमभूत् पराजयं प्राप्तमित्यर्थः, अतएव मङ्गस्य पराजयस्थ लक्षणं चिह्न (प० तत्पु० ) सलिलात् जलात् उन्मज्जनम् उपर्यवस्थानम् अधुना साम्प्रतम् अपि नोज्झति न त्यजतीति स्फुटमित्युत्प्रेक्षे। दमयन्ती-वदन-सौन्दर्य कमल-सौन्दर्यापे क्षयाऽधिकमिति भावः // 27 // व्याकरण-परीक्षणम् परि+ईल + ल्युट ( मावे ) / अभाजि/भञ्+लुङ् ( कर्तरि ) / मङ्गः-/म+वञ् ( मावे ) / उन्मजनम् -उत् + मज्ज+ल्युट ( भावे ) / अनुवाद-अतिसौन्दर्य-विषय की परीक्षा में समो कमल उस ( दमयन्ती ) के मुख से हार खा बैठे ( यही कारण है कि ) हार का चिह्न ( अर्थात् ) पानी से ऊपर उठ जाना वे मानो अभी तक नहीं छोड़ रहे हैं // 27 // टिप्पणी-यहाँ दिव्य परीक्षाओं में अग्निपरीक्षा की तरह जल-परीक्षा की ओर कवि का संकेत है। जल-परीक्षा में यह होता है कि कोई धनुर्धर बाण छोड़ता है। उसके साथ ही एक व्यक्ति दौड़ता है और जहाँ वाय भूमि पर गिरता है, वहाँ से गिरे हुए बाण को उठाकर दौड़-दौड़ के फिर उसी स्थान में ले आता है, जहाँ से वह छोड़ा गया था। इस बीच जिस व्यक्ति की दिव्य परीक्षा लेनी होती है, वह बाण छोड़ते ही पानी में डुबकी लगा देता है। यदि वह बाण के लाये जाने के समय तक पानी में डूबा ही रहता है, तो वह विजयी हो जाता है, लेकिन अगर वह पहले ही बीच में पानी से ऊपर उठ जाता है, तो वह पराजित माना जाता है। दमयन्ती के मुख और कमल के बीच मी होड़ लग गई कि देखें हम दोनों में कौन अधिक सुन्दर है। कमल की जलपरीक्षा लो गई तो वह बाण के प्रक्षेपस्थान तक लाये जाने से पूर्व ही पानी से ऊपर उठ माया और हार खा बैठा। वैसे कमलों में हमेशा पानी की सतह से ऊपर उठा रहना स्वमाव-सिद्ध है, किन्तु कवि ने उसमें पराजय-चिह्न की कल्पना की है अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है। उससे कमल को अपेक्षा मुख अधिक सुन्दर है-यह व्यतिरेक ध्वनि है। विद्याधर ने यहाँ अनुमानालंकार और अतिशयोक्ति माना है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। धनुषी रतिपञ्चबाणयोरुदिते विश्वजयाय तद्भवौ / नलिके ने तदुच्चनासिके त्वयि नालीकविमुक्तिकामयोः // 28 // अन्वयः-तद्-भ्रुवौ विश्व-जयाय उदिते रति-पञ्चबाणयोः धनुषी ( न ) ? तदुच्च-नासिके त्वयि नालीक-विमुक्तिकामयोः तयोः नलिके न ? . टोका-तस्या दमयन्त्या भ्रवौ ( 10 तत्पु० ) विश्वस्य जगत: जयाय विजयार्थ ( 10 तत्पु०) उदिते प्रादुर्भूते रतिः कामदेवपत्नी च पञ्चबापः कामदेवश्च तयोः ( द्वन्द्व ) धनुषी चापो नेति