________________ द्वितीयसर्गः 17 प्रतिपादयत् अर्थात् यदा अधर-शब्दो दमयन्त्योष्ठं प्रतिपादयति तदा किल निश्चयेन विम्बनामक फलम अस्मात् दमयन्त्या ओष्ठात् अधरं निम्नम् अपकृष्टमिति यावत् अस्ति इति हेतोः मन्यं सम्यक अन्वयं सम्बन्धं लमते प्राप्नोति / अयं भाव: अन्यनार्योष्ठ पतिपादनेऽधर विम्बशब्दोऽधरो -विम्बमिवेत्यु। पमितसमासमाश्रयति, तासामधरस्य बिम्बसादृश्यात् ; किन्तु दमयन्त्या ओष्ठस्तु बिम्बफलादप्युत्कृष्ट इति तत्र अपरम् अपकृष्टं बिम्बफलं यस्मादिति बहुव्रीहिमाश्रित्य सार्थकता लमते, दमयन्त्या अधरो बिम्बादप्युकृष्ट इत्यर्थः // 24 // व्याकरण-अधरः अधः इयर्तोति अध:+/ऋ+अच् ( कर्तरि ) निपातनाद् विमर्गलोपः / बास्क का भी कहना है 'अधरः अधोऽरः अधो धावतोति ऊध्वंगतिः प्रतिषिद्धा'। रदनच्छदः रदमाना दन्तानां छद; वसनम् आच्छादकमित्यर्थः। मण्यम् भवतोति/भू+यत् (निपातितः) / अन्वयः अनु++अच ( मावे ) / 40 अनुवाद-'अधर-बिम्ब' यह शब्द इस ( दमयन्ती) के ओष्ठ का प्रतिपादन करते समय 'अधर - निकृष्ट है बिम्ब नामक फल जिमसे' ऐसी यह ठीक ही व्युत्पत्ति पा रहा है // 24 // टिप्पणो-मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ दमयन्ती के ओष्ठ द्वारा बिम्ब-फल के अधःकरण का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताने से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति और उसके द्वारा उपमावनि है। हम यहाँ उपमान-भून बिम्बफल में उपमेय-भूत अधर के साथ समता करने की योग्यता बताने से प्रतीप कहेंगे। 'धरं' 'धर' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा / कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृत गम्भीरखनीखनीलिम // 25 // अन्वयः-इन्दु-मण्डलम् वेधसा दमयन्ती-वदनाय, हृत-सारम् इव (सन् ) कृतमध्य-बिलम् (बतएव ) धृतनीलिमम् विलोक्यते। . . टीका-इन्दोः चन्द्रमसः मण्डलम् बिम्बम् (ष. तत्पु० ) वेधसा ब्रह्मणा दमयन्त्या वदनाय मुखाय ( 10 तत्पु० ) तद्वदनं निर्मातुमित्यर्थः हृतः अपनीतः सारो दृढांशो यस्मात्तथाभूतम् (ब० वी० ) सत् कृतं विहितं मध्ये मध्यभागे बिलं छिद्रं गत इति यावत् ( स० तत्पु०) यस्य तथाभूतम् (व० वी०) प्रतएव धृतो धारितः गभारायां निम्नायां खन्या गत ( कर्मधा० ) परमागगतस्य खस्य भाकाशस्य (स. तत्पु० ) नीलिमा नौलत्वं ( 10 तत्पु०) येन तथाभूतम् (ब० वी०) विलोक्यते दृश्यते। चन्द्रमण्डलमध्ये दृश्यमानः कलङ्कः कलङ्को न प्रत्युत दमयन्तोमुखनिर्माणाय ब्रह्मप्या तस्मात् 'स्थानात सारांशस्य निस्सारितत्वाज्जाते गत परमागगतगगनस्य नीलिमास्तीति भावः // 25 // __ण्याकरण-वदनाय वदनं निमोतुम् यहाँ अभ्युज्यमान क्रियार्थी क्रिया निर+/मा के तमन के कर्म को चतुर्थी हो रही है ( "क्रियार्थोपपदस्य०' 2 / 3 / 14) / खनी खनि+ङीप् / अनुवाद-चन्द्रमण्डल-जिसमें से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ब्रह्मा द्वारा दमयन्तीका मुख निर्माण हेतु ( बीच का) सार-भूत अंश ले लिया गया हो-मध्य में गर्त बन जाने के कारण गहरी खाई में ( परमाग वाले ) गगन की नीलिमा धारण किये दिखायी देता है // 25 //