Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 16
________________ नैषधीयचरिते उसकी दायीं आँख जिस तरह कान तक लंबी गई हुई है, उसी तरह बायीं आँख भी, जिस तरह उसका सौन्दर्य-गुण दमक रहा है वैसे ही विनयादि गुण भी। शब्दालंकार यहाँ वृत्त्यनुप्रास है। नलिनं मलिनं विवृण्वती पूषतीमस्पृशती तदीक्षणे / अपि खञ्जनमञ्जनाश्चिते विदधाते रुचिगर्वदुर्विधम् // 23 // अन्वयः-पृषतीम् अस्पृशतो तदीक्षणे नलिनम् मलिनं विवृण्वतो, अञ्जनामिते सती च खजनम् अपि रुचि-गर्व-दुर्विधम् विदधाते / टीका-पृषतीम् अञ्जनस्य शलाकाम् अस्पृशती अस्पर्शविषयोकुर्वती अमाप्नुवतीत्यर्थः अञ्जन-रहिते इति यावत् तस्या दमयन्त्या ईक्षणे नयने ( 10 तत्पु० ) नलिनं कमलं मलिनं विवर्ष गतश्रीकमिति बावत् विवण्वती कुर्वती, स्वकान्त्या पराभवन्तीत्यर्थः, अन्जनेन कज्जलेन अश्चिते पूजिते भूषिते इत्यर्थः सती तु खञ्जनम् खजरीटम् ( खजरीटस्तु खजनः' इत्यमरः ) रुचेः कान्तेः यः गोऽभिमान: (10 तत्पु०) तेन दुधिं दरिद्रम् ( 'नि:स्वस्तु दुर्विधो दीनो दरिद्रो दुर्गतोऽपि सः' / इत्यमरः ) विदधाते कुर्वाते कान्तिगर्वमाने ते इत्यर्थः। अञ्जनानलङ्कृते तस्याः श्वेतनयने श्वेतकमलं पराजयेते, अञ्जनाउकृते च सती तु श्वेतवर्ष खन्जनमपि खञ्जयेते, कज्जलसंयोगेन केवलश्वेतवर्षखजनापेझया तदीक्षभयोरधिक रुचिरत्वादिति भावः / / 23 / / व्याकरण-अस्पृशती न/स्पृश् + शतृ प्र० द्विव० नपुं० / ईक्षणम् क्ष्यिते दृश्यतेऽनेनेति Vईक्ष् + ल्युट् ( करणे ) / विवृण्वती वि+Vवृ+शतृ प्र० वि० नपुं० / अञ्चिते/ अब्+क्त (कर्मणि) प्र. द्विव०। अनुवाद-काजल की सलाई न लगाए उस ( दमयन्ती ) को आँखें कमल को मैला (श्रीहीन ) बनाती हुई, काजल से भूषित ( हो) खजन पक्षी को भी सौन्दर्यामिमान से खाली कर देती 1 // 23 // टिप्पणी-आँखों का कमल में मलिनता लाने का सम्बन्ध न होते हुए भी मलिनता का सम्बन्ध बताया गया है, इसलिए मल्लिनाथ ने यहाँ असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार कहा है। विद्याघर का मी यही मत है। हमारे विचार से यहाँ कमल और खञ्जन की अपेक्षा आँखों में अधिकता बताने से व्यतिरेक है। शम्दालंकारों में लिनं' 'लिन' तथा 'पती' 'शती' में यमक है। 'लिन टिनं' में 'अलिनं अलिनं' यो प्रकार का योग करके पदगत अन्त्यानुप्रास का यमक के साथ एक-- बाचकानुप्रवेश संकर भी है। अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अधरं किल बिम्बनामकं फलमस्मादिति मव्यमन्वयम् / लमतेऽधरबिम्बमित्यदः पदमस्या रदनच्छदं वदत् // 24 // अन्वयः-अधरबिम्बम् इति अदः पदम् अस्याः रदन-च्छदम् वदत् किल बिम्ब-नामकम् फलम् बस्मात् अधरम् इति भव्यम् अन्वयम् लभते। टीका-अधरः ओष्ठः बिम्ब बिम्बफलम् इवेति अधरबिम्बम् ( उपमित तत्पु०) इति अदः एतत् पदं सुबन्त-शब्दोऽस्या दमयन्त्या रदन-च्छदम् ओष्ठं ( 'ओष्ठाधरौ तु रदनच्छदौ' इत्यमरः) वदन

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