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पर्याय का स्वरूप
होता ही नहीं ।
मोक्षमार्ग, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के संबंध में भी जघन्य काल अंतर्मुहूर्त ही समझना चाहिए। ये पर्यायें भी किसी जीव को १, २ आदि समय मर्यादा की नहीं होती। इन पर्यायों की पर्यायगत पात्रता ही ऐसी है कि इनका जघन्य काल अंतर्मुहूर्त ही होता है ।
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विश्व अनादि - अनंत है । द्रव्य अनादि अनंत है । प्रत्येक द्रव्य का प्रत्येक गुण अनादि अनंत है। जो-जो अनादि अनंत होता है, वह नियम से अकृत्रिम, स्वयम्भू और सहज एवं स्वभाव से शुद्ध होता है, उसको बनानेवाला कोई कर्त्ता नहीं होता। जिसका कोई कर्त्ता / उत्पादक नहीं होता, उसका कोई रक्षक व नाश करनेवाला भी नहीं होता है।
इसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय जो परिवर्तन होता है, उसे पर्याय कहते हैं। यह पर्याय सादि-सांत होती है, प्रति समय नई-नई उत्पन्न होती है, अतः उस पर्याय का कोई न कोई कर्त्ता अवश्य होना चाहिए - ऐसा स्थूलरूप से सब को लगता है।
वस्तु-व्यवस्था के अनुसार सूक्ष्मता से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि अपने काल में होनेवाली प्रत्येक पर्याय अपने ही कारण से होती है। इसे ही पर्यायगत सत् कहते हैं।
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प्रवचनसार गाथा १०२ की टीका में इसे ही पर्याय का 'जन्मक्षण' कहा है - इस शब्द से यह विषय विशेषरूप से स्पष्ट होता है।
प्रत्येक समय की पर्याय अपने कारण से सत् है, इस विषय के विशेष ज्ञान के लिए आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचनसार गाथा ९९,१००, १०१ पर हुए प्रवचन पदार्थ विज्ञान नाम से पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित है, उसे अवश्य देखें ।
इतना जरूर है कि द्रव्य की जब-जब कोई भी पर्याय / अवस्था होती. है, उस समय उस पर्याय की उत्पत्ति में अन्य द्रव्य की कोई-न-कोई अनुकूल पर्याय अवश्य होती है, जिसे निमित्त कहते हैं और उस निमित्त को ही उत्पन्न होनेवाली पर्याय / कार्य का कर्त्ता व्यवहार से कहा जाता है ।