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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
घटघट अन्तर जैन - अर्थात् गृहस्थाश्रम में रहते हुए चक्रवर्ती के ९६००० रानियाँ होती हैं, इन्द्र के करोड़ों अप्सरायें होती हैं, अनेक प्रकार के वैभव बाह्य में होते हैं; तथापि सम्यग्दृष्टि अन्दर में जैन है, राग से भिन्न पड़ा होने से सच्चा जैन है।
जिसने बाहर से हजारों स्त्रियाँ छोड़ दी हो, त्यागी बन गया हो, किन्तु राग से भिन्न न हुआ हो तो वह वास्तविक जैन नहीं है। उसने राग को मन्द तो किया है, किन्तु राग से भिन्नत्व का अनुभव नहीं किया, इसलिए जैन नहीं है। (आत्मधर्म : फरवरी १९८०, पृष्ठ-२४)
६९. प्रश्न - राग से छुटकारा कैसे मिले?
उत्तर - एकान्त दुःख के जोर से राग से छुटकारा मिल जाय - ऐसा बनता नहीं।
हाँ, द्रव्यदृष्टि के जोर से राग से छुटकारा मिल सकता है। आत्मा को पहिचाने बिना, जाने बिना जावें कहाँ? - आत्मा को जाना हो, उसका अस्तित्व ग्रहण किया हो, तो राग से
छूटकर आत्मा में लीन हो सकता है। (आत्मधर्म : मई १९७९, पृष्ठ-२४) ____७०. प्रश्न - आत्मा की रुचिवाला जीव मरकर देव में ही जाता है न? - उत्तर - हाँ, तत्त्व की रुचि है, वाचन-श्रवण है, भक्ति, पूजा आदि है' - इनका करनेवाला तो देव ही होता है। कोई साधारण हो तो वह मनुष्य होता है।
(आत्मधर्म : नवम्बर १९८०, पृष्ठ-२७) ७१. प्रश्न - देव होता है तो कैसा देव होता है?
उत्तर - वह तो अपनी योग्यतानुसार भवनत्रिक या वैमानिक में जाय, तथा आत्मानुभवी तो वैमानिक में ही जाय।
(आत्मधर्म : नवम्बर १९८०, पृष्ठ-२७)