Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 210
________________ सम्यक्चारित्र की महिमा 209 स्वकार्य करने में असमर्थ है, और कथंचित् विरुद्ध कार्य (अर्थात् बन्ध को) करनेवाला है, ऐसे चारित्र से युक्त होने से, जैसे अग्नि से गर्म किया घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जाये तो वह उसकी जलन से दुःखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुख के बन्ध को प्राप्त होता है। (प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका, गाथा-११, पृष्ठ-१८) १६. स्वरूप में रमना सो चारित्र है। स्वसमय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है। (प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका गाथा-७, पेज-९९) १७. निज शुद्धात्मा के संवेदन में अनुचरण करने रूप अथवा आगमभाषा में वीतराग परमसामायिक नामवाला अर्थात् समताभावरूप स्वचारित्र होता है। (पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति गाथा-१५८, पृष्ठ-२२८) १८. चारित्र, मोक्ष का साक्षात् कारण है, यह बात जानने के लिए सूत्र में इसका ग्रहण अन्त में किया है। (सर्वार्थसिद्धि, अध्याय-९, सूत्र-१८, पृष्ठ-३४३) १९. अज्ञानपूर्वक आचरण के निराकरण के अर्थ सम्यक् विशेषण दिया गया है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय-१, सूत्र-१, पृष्ठ-४) २०. सूत्र में चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है; क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय-१, सूत्र-१, पृष्ठ-५) २१. 'सम्यक्त्वचारित्रे' इस सूत्र में सम्यक्त्व पद को आदि में रखा है; क्योंकि चारित्र सम्यक्त्वपूर्वक होता है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय-२, सूत्र-३, पृष्ठ-११०) २२. चारित्र की आराधना करने से दर्शन, ज्ञान व तप, यह तीनों आराधनाएँ भी हो जाती हैं। परन्तु दर्शनादि की आराधना से चारित्र की आराधना हो या न भी हो। (भगवती आराधाना, गाथा-८, पृष्ठ-५)

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