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सम्यक्वारित्र की महिमा
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२८. उपेक्षा संयम या वीतराग चारित्र और अपहृत संयम या सराग
चारित्र ये दोनों भी एक उसी शुद्धोपयोग में प्राप्त होते हैं। अथवा सामायिकादि पाँच प्रकार के संयम भी उसी में प्राप्त होते हैं। क्योंकि उपरोक्त संयमादि समस्त गुण एक शुद्धोपयोग में प्राप्त होते हैं, इसलिए वही प्रधानरूप से उपादेय हैं।
(परमात्मप्रकाश अधिकार-२, श्लोक-६७) २९. हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के त्याग को व्रत कहते हैं, ये व्रत पुण्यासव के कारणरूप भाव समझने चाहिए।
(तत्वार्थसार अधिकार-४, श्लोक-१०१) ३०. समस्त पापयुक्त मन, वचन, काय के योगों के त्याग से सम्पूर्ण
कषायों से रहित अतएव, निर्मल, परपदार्थों से विरक्ततारूप चारित्र होता है; इसलिए वह आत्मा का स्वरूप है।
(पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक-३९, पेज-४९) ३१. वह चारित्र (पूर्व श्लोक में कथित शुद्धोपयोग रूप चारित्र) निर्जरा
का कारण है, यह बात न्याय से भी अबाधित है। वह चारित्र अन्वर्थ क्रिया में समर्थ होता हुआ दीपक की तरह अन्वर्थ
नामधारी है। (पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध, श्लोक-७५९, पृष्ठ-४६६) ३२. नियम से शुद्ध क्रिया को छोड़कर शेष क्रियाएँ बन्ध की ही जनक
होती हैं, इस हेतु से विचार करने पर इस शुभोपयोग को विरुद्ध कार्यकारित्व असिद्ध नहीं है।
_ (पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध श्लोक-७६२, पृष्ठ-४६७) ३३. यद्यपि लोकरूढ़ि से शुभोपयोग को चारित्र नाम से कहा जाता
है; परन्तु निश्चय से वह चारित्र स्वार्थ क्रिया को नहीं करने से अर्थात् आत्मलीनता अर्थ का धारी न होने से अन्वर्थनामधारी नहीं है।
(पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध श्लोक-७६०, पृष्ठ-४६६)