Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 214
________________ 213 सम्यक्चारित्र के भेद-प्रभेद ये भी चारित्र के चार भेद हैं। • छद्मस्थों का सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञों का सयोग और अयोग इस तरह चारित्र चार प्रकार का है। • सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म-सांपराय और यथाख्यात के भेद से चारित्र पाँच प्रकार का है। • वह चारित्र व्यवहारनय से पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन - गुप्ति इस प्रकार १३ भेदरूप भी हैं। • इसी तरह विविध निवृत्तिरूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्परूप चारित्र होता है। प्रश्नोत्तर १. प्रश्न -संयम तो जीव का स्वभाव ही है, इसीलिए वह अन्य के द्वारा अर्थात् कर्मों के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका विनाश होनेपर जीव द्रव्य के भी विनाश का प्रसंग आता है? उत्तर- नहीं आयेगा, क्योंकि, जिसप्रकार उपयोग जीव का लक्षण माना गया है, उसप्रकार संयम जीव का लक्षण नहीं होता। ___-- (धवला पुस्तक-७, खण्ड-२, पेज-९६) २. प्रश्न - ज्ञान इष्ट-अनिष्ट मार्ग को दिखाता है, इसलिए उसकी उपकारपना युक्त है (परन्तु क्रिया आदि को उपकारक कहना उपयुक्त नहीं)। __उत्तर - यह कहना योग्य नहीं हैं, क्योंकि ज्ञान मात्र से इष्ट सिद्धि नहीं होती, कारण कि प्रवृत्ति रहित ज्ञान नहीं हुए के समान है। जैसे नेत्र के होते हुए भी यदि कोई कुएँ में गिरता है, तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं। (भगवती आराधना, गाथा-५६, पृष्ठ-२५) ३. प्रश्न - ज्ञान का कार्य क्या है? उत्तर - तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना कार्य है। (धवला पुस्तक-१, खण्ड-१, भाग-१, पृष्ठ-३५५)

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