________________
श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
उत्तर – इस जगत में मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ। मेरे से भिन्न जगत के समस्त जड़-चेतन पदार्थ मेरे ज्ञेय हैं। विश्व के पदार्थों के साथ ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध के अतिरिक्त अन्य कोई सम्बन्ध मेरा नहीं है । कोई भी पदार्थ मेरा नहीं और मैं किसी के कार्य का कर्त्ता नहीं । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभावसामर्थ्य से ही उत्पाद व्यय - ध्रौव्यस्वरूप से परिणमित हो रहा है, उसके साथ मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है । जो जीव ऐसा निर्णय करता है, वही पर के साथ का सम्बन्ध तोड़कर निजस्वरूप में उपयोग को जोड़ता है और उसे ही स्वरूप में चरणरूप चारित्र होता है। इसप्रकार चारित्र के लिए प्रथम वस्तुस्वरूप का निर्णय करना ( आत्मधर्म : अगस्त १९८२, पृष्ठ- २४) ६. प्रश्न - ऐसा समझने पर तो कोई जीव व्रत और त्याग करेगा ही नहीं ?
चाहिए।
उत्तर - कौन त्याग करता है और किसका त्याग करता है? परवस्तु का तो ग्रहण-त्याग कोई जीव कर ही नहीं सकता, मात्र अपने विकार का ही त्याग किया जा सकता है। ( आत्मधर्म : : जून १९८२, पृष्ठ- २४) ७. प्रश्न - विकार का त्याग कौन कर सकता है ? उत्तर- जिसको विकार से भिन्न स्वभाव की प्रतीति हुई हो, वही जीव विकार का त्याग कर सकता है। राग से भिन्न आत्मस्वभाव को जाने बिना राग का त्याग कैसे करेगा ?
सम्यग्दर्शन द्वारा राग से भिन्न स्वभाव की श्रद्धा करने के पश्चात् ही राग का यथार्थरूप से त्याग हो सकता है।
जो जीव अपने शुद्धस्वभाव को तो जानता नहीं है और राग के साथ एकत्व मानता है, वह जीव राग का त्याग नहीं कर सकता, इसलिये इसे समझने के बाद ही सच्चा त्याग हो सकता है।
-
149