Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 198
________________ 197 सम्यग्ज्ञान के भेद-प्रभेद • ज्ञान, आपदारूपी मेघों को उड़ाने के लिए पवन के समान है। • ज्ञान, समस्त तत्त्वों का प्रकाश करने के लिए दीपक के समान है। • विषयरूपी मत्स्यों को पकड़ने के लिए ज्ञान, जाल के समान है। कैसा है संसाररूपी वन? • जहाँ पापरूपी सर्प के विष से समस्त प्राणी व्याप्त हैं। • जहाँ क्रोधादि पापरूपी बड़े-बड़े पर्वत हैं और • जो वक्र गमनवाली दुर्गतिरूपी नदियों में गिरने से उत्पन्न हुए भयंकर सन्ताप से अतिशय भयानक हैं। • तथापि ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश होने से किसी प्रकार का दुःख व भय नहीं रहता है। • ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। ज्ञान से मोक्ष प्रगट होता है। प्रश्नोत्तर १. प्रश्न- हे भगवन! यह धर्मास्तिकाय है। यह जीव है।' इत्यादि ज्ञेय तत्त्व के विचारकाल में किये गये विकल्पों से यदि कर्मबन्ध होता है तो ज्ञेयतत्त्व का विचार करना व्यर्थ है। इसलिए वह नहीं करना चाहिए? उत्तर - ऐसा नहीं करना चाहिए। यद्यपि त्रिगुप्ति गुप्त निर्विकल्प समाधि के समय वह नहीं करना चाहिए। तथापि उस त्रिगुप्तिरूप ध्यान का अभाव हो जाने पर शुद्धात्मा को उपादेय समझते हुए या आगम भाषा में एकमात्र मोक्ष को उपादेय करके सराग सम्यक्त्व के काल में विषयकषाय से बचने के लिए अवश्य करना चाहिए। (समयसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-१०३) २. प्रश्न - ‘ज्ञानावरण' नाम के स्थान पर 'ज्ञानविनाशक' ऐसा नाम क्यों नहीं कहा? उत्तर - नहीं, क्योंकि जीव के लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शन का विनाश नहीं होता है। यदि ज्ञान और दर्शन का विनाश माना जाये, तो

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