Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 166
________________ 165 सम्यग्दर्शन की परिभाषाएँ *५३. केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों में देखे गये पदार्थों के विषय में रुचि होती है, वह यहाँ परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन इस नाम से प्रसिद्ध है। ( आत्मानुशासन श्लोक-१२,१३,१४) ५४. आत्मा में परवस्तुओं से भिन्नत्व की श्रद्धा करना, सो निश्चय . सम्यग्दर्शन है। (छहढाला-तीसरी डाल, छन्द-२) ५५. पर-पदार्थों से त्रिकाल भिन्न ऐसे निजात्म का अटल विश्वास करना, उसे निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं। (छहढाला-तीसरी डाल, छन्द-२) • दूरभिनिवेश रहित पदार्थों का श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्ष पूर्वक स्व-पर भेद का या कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। किन्हीं को यह स्वभाव से ही होता है और किन्हीं को उपदेशपूर्वक। * आज्ञा आदि की अपेक्षा यह दश प्रकार का है। * कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा तीन प्रकार का होता है। इनमें से पहले दो अत्यन्त निर्मल व निश्चल होते हैं, पर तीसरे में समल होने के कारण कदाचित् कुछ अतिचार लगने सम्भव हैं। * राग के सद्भाव व अभाव की अपेक्षा भी इसके सराग व वीतराग दो भेद हैं। वहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणों के द्वारा अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। • सम्यक्त्व के सभी भेद निःशंकित आदि आठ गुणों से भूषित होते हैं। * सम्यक्त्ववज्ञान में महान अन्तर होता है, जो सूक्ष्म विचार के बिना पकड़ में नहीं आता। जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं, वे सब ज्ञानरूप हैं।

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