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हा!
सम्यक्त्व के विभिन्न लक्षणों का समन्वय
८. यहाँ प्रश्न है कि ऐसा है तो शास्त्रों में आपा-पर के श्रद्धान को व केवल आत्मा के श्रद्धान ही को सम्यक्त्व कहा व कार्यकारी कहा; तथा नव तत्त्व की संतति छोड़कर हमारे एक आत्मा ही होओ- ऐसा कहा, सो किस प्रकार कहा?
समाधान - जिसके सच्चा आपा-पर का श्रद्धान व आत्मा का श्रद्धान हो, उसके सातों तत्त्वों का श्रद्धान होता ही होता है।
तथा जिसके सच्चा सात तत्त्वों का श्रद्धान हो उसके आपा-पर का व आत्मा का श्रद्धान होता ही होता है - ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानकर आपा-पर के श्रद्धान को या आत्मश्रद्धान ही को सम्यक्त्व कहा है।
तथा इस छल से कोई सामान्यरूप से आपा-पर को जानकर व आत्मा को जानकर कृतकृत्यपना माने, तो उसके भ्रम है; क्योंकि ऐसा कहा है
निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्।' इसका अर्थ यह है - विशेष रहित सामान्य है, सो गधे के सींग
समान है।
इसलिये प्रयोजनभूत आस्रवादिक विशेषों सहित आपापर का व आत्मा का श्रद्धान करना योग्य है। अथवा सातों तत्त्वार्थों के श्रद्धान से रागादिक मिटाने के अर्थ परद्रव्यों को भिन्न भाता है व अपने आत्मा ही को भाता है, उसके प्रयोजन की सिद्धि होती है; इसलिये मुख्यता से भेदविज्ञान को व आत्मज्ञान को कार्यकारी कहा है। __ तथा तत्त्वार्थ-श्रद्धान किये बिना सर्व जानना कार्यकारी नहीं है, क्योंकि प्रयोजन तो रागादिक मिटाने का है; सो आम्रवादिक के श्रद्धान बिना यह प्रयोजन भासित नहीं होता; तब केवल जानने ही से मान को १:आलापपद्धति, श्लोक-९