Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 188
________________ सम्यग्ज्ञान सम्यग्ज्ञान की विभिल्ल परिभाषाएँ १. सम्यग्ज्ञान को ही ज्ञान संज्ञा है। २. उक्त ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष का मूल निजपरमतत्त्व में स्थित ऐसा एक सहज ज्ञान ही है। तथा सहजज्ञान पारिणामिकभावरूप स्वभाव के कारण भव्य का परमस्वभाव होने से, सहजज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है। (नियमसार तात्पर्यवृत्ति गाथा-१२, पृष्ठ-२९) ३. जो योगी/मुनि, जीव-अजीव पदार्थ का भेद जिनवर के मतकरि जाणै हैं, सो सम्यग्ज्ञान सर्वदर्शी कया है, सो ही सत्यार्थ है। अन्य छद्मस्थ का कया सत्यार्थ नाहीं। (मोक्षपाहुड़, गाथा-४१, पृष्ठ-२५४) ४. जिन प्रणीत हेयोपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। (नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-५१, पृष्ठ-१०८) ५. परद्रव्य का अवलम्बन लिये बिना निःशेषरूप से अन्तर्मुख योगशक्ति में से उपादेय (उपयोग को सम्पूर्णरूप से अन्तर्मुख करके ग्रहण करने योग्य) ऐसा जो निज परमात्मतत्त्व का परिज्ञान, सो ज्ञान है। (नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-३, पृष्ठ-९) ६. जो जानता है वह ज्ञान है। जिसके द्वारा जाना जाय, सो ज्ञान है। जाननामात्र ज्ञान है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय-१, सूत्र-१, पृष्ठ-५) ७. साकारोपयोग का नाम ज्ञान है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय-२, सूत्र-९)

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