Book Title: Mokshmarg Ki Purnata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Smarak Trust

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Page 192
________________ 191 का सम्यग्ज्ञान की महिमा है। यह बात निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर जो जानता है, वह ज्ञानी होता है; परिज्ञान मात्र से नहीं। _ (समयसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-१०१, पृष्ठ-१११) ४. जो जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त करके मोह, राग, द्वेष को हरता है; वह अल्पकाल में सर्व दुःखों से मुक्त होता है। (प्रवचनसार, गाथा-८८, पृष्ठ-१५७) ५. जो आत्मा इस समयप्राभृत को पढ़कर अर्थ और तत्त्व को जानकर उसके अर्थ में स्थित होगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप होगा। - (समयसार, गाथा-४१५, पृष्ठ-६४३) ६. जो जीव उस अस्तित्व निष्पन्न तीन प्रकार से कथित द्रव्यस्वभाव को जानता है, वह अन्य द्रव्य में मोह को प्राप्त नहीं होता। (प्रवचनसार, गाथा-१५४, पृष्ठ-३१३) ७. श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है; अतः आगम में व्यापार मुख्य है। ___(प्रवचनसार, गाथा-२३२, पृष्ठ-४५२) ८. यदि श्रमण कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है, ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित ही नही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है। . . (प्रवचनसार, गाथा-१२६, पृष्ठ-२५७) ९. इस प्रकार प्रवचन के सारभूत ‘पंचास्तिकायसंग्रह' को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ता है, वह दुःख से परिमुक्त होता है। (पंचास्तिकाय, गाथा-१०३, पृष्ठ-१३९) १०. जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञानस्वरूपी होता हुआ या परिणमता हुआ भासित होता है, वही मोक्ष का हेतु है; क्योंकि आत्मा स्वयमेव मोक्षस्वरूप है। उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है वह बन्ध का हेतु हैं; क्योंकि वह

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