________________
136
मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यग्दर्शन का जोर वर्त रहा है, वह निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण है।
(आत्मधर्म : अप्रेल १९८४, पृष्ठ-२६) ___६६. प्रश्न - नव तत्त्व का विचार तो पहले अनन्तबार कर चुके हैं; फिर भी लाभ क्यों नहीं हुआ ?
उत्तर - भाई ! पहले जो नव तत्त्व का विचार कर चुके हो, उससे इसमें कुछ विशेषता है। ___ पहले जो नवतत्त्व का विचार कर चुके हो, वह तो अभेदस्वरूप के लक्ष्य बिना किया था, जबकि यहाँ अभेदस्वरूप के लक्ष्य सहित की बात है।
पहले अकेले मन के स्थूल विषय से नव तत्त्व के विचाररूप आँगन तक तो अनन्तबार आया है; परन्तु उससे आगे बढ़कर विकल्प तोड़कर ध्रुव चैतन्यतत्त्व में एकपने की श्रद्धा करने की अपूर्व समझ से वञ्चित रहा; इसलिये भवभ्रमण खड़ा रहा। (आत्मधर्म : अप्रेल १९८४, पृष्ठ-२५)
६७. प्रश्न - शुभभाव में गर्भित शुद्धता कही गई है; उसीप्रकार मिथ्याश्रद्धान में गर्भित शुद्धता है क्या?
उत्तर - नहीं; मिथ्याश्रद्धानयुक्त पर्याय विपरीत ही है, उसमें गर्भित शुद्धता नहीं है।
ज्ञान में निर्मलता विशेष है, ज्ञान के अंश को निर्मल कहा है और वह वृद्धिंगत होकर केवलज्ञान होता है।
तथा शुभ में गर्भित शुद्धता का अंश कहा है, किन्तु ग्रंथिभेद (सम्यग्दर्शन) होने के बाद ही वह शुद्धता काम करती है।
__(आत्मधर्म : फरवरी १९७८, पृष्ठ-२७) ६८. प्रश्न - “घटघट अन्तर जिन बसै, घटघट अन्तर जैन" - इसका क्या अर्थ है? .. उत्तर - प्रत्येक आत्मा शक्तिरूप से तो 'जिन' ही है।