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मोक्षमार्ग की पूर्णता
की काण्डकघातादि क्रिया नहीं करता, वहाँ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नाम पाता है - ऐसा जानना।
तथा इस क्षयोपशमसम्यक्त्व ही का नाम वेदकसम्यक्त्व है।
जहाँ मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीय की मुख्यता से कहा जाये, वहाँ क्षयोपशम नाम पाता है।
सम्यक्त्वमोहनीय की मुख्यता से कहा जाये, वहाँ वेदक नाम पाता है। सो कथनमात्र दो नाम हैं, स्वरूप में भेद नहीं है। तथा वह क्षयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तमगुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है। इसप्रकार क्षयोपशमसम्यक्त्व का स्वरूप कहा।"१
जैसे महासागर के विशाल/विपुल जल-समूह में विष का एक बिन्दु गिर जाये तो विष के बाधकपने का असर कुछ कार्यकारी नहीं होता; वैसे सम्यक्त्वप्रकृति के निमित्त से उत्पन्न मलादि दोष सम्यक्त्वरूपी समुद्र में कुछ कार्यकारी नहीं होते।
शास्त्र में जो विषय जैसा कहा गया है, उसे वैसा ही मानना चाहिए। हम सब जगह तर्क-वितर्क नहीं कर सकते, इसी दृष्टि से जिनागम में करणानुयोग को 'अहेतुवाद' आगम भी कहा है। . वस्तुतः चारों अनुयोगों में मात्र द्रव्यानुयोग में ही हम तर्क के आधार से निर्णय करने का प्रयास कर सकते हैं। शेष तीनों अनुयोगों के कथन को आज्ञा-प्रमाण से ही मानना अनिवार्य होता है, अन्य कोई उपाय नहीं है। __ जीव के श्रद्धा गुण का मिथ्यात्वरूप परिणमन अनादिकाल से ही चल रहा है। यह मिथ्यादृष्टि जीव जब जिनवाणी को पढ़कर या आत्मज्ञानी की देशना सुनकर वस्तुस्वरूप समझता है। उस काल में जिनवाणी के अध्ययन से मिथ्यादृष्टि को सम्पूर्ण सत्यस्वरूप समझ (सविकल्प ज्ञान) में आता है और विशुद्धता बढ़ती है, जिसका निमित्त पाकर पहले तो मिथ्यात्व परिणाम में मन्दता आती है। १. मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३३४, ३३५