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मोक्षमार्ग की पूर्णता चाहिए - ऐसा कोई नियम नहीं है; क्योंकि आत्मानुभव ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं।
इस सम्बन्ध में पं. राजमलजी पाण्डे ने 'समयसार कलश १३ की टीका' में सरस बात की है। वे कहते हैं :__ “आत्मानुभव परद्रव्य की सहायता से रहित है, इसकारण अपने ही में अपने से आत्मा शुद्ध होता है...... जीववस्तु का जो प्रत्यक्षरूप से आस्वाद, उसको आत्मानुभव-ऐसा कहा जाय अथवा ज्ञानानुभव - ऐसा कहा जाय; दोनों में नामभेद है, वस्तुभेद नहीं है; अतः ऐसा जानना कि आत्मानुभव मोक्षमार्ग है।
इस प्रसंग में और भी संशय होता है कि कोई जानेगा कि द्वादशांग ज्ञान कोई अपूर्वलब्धि है।
उसके प्रति समाधान इसप्रकार है कि द्वादशांगज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है; इसलिये शुद्धानुभूति के होने पर शास्त्र पढ़ने की कुछ अटक नहीं है।"
द्वादशांग भी ऐसा ही कहता है कि शुद्धात्मा में प्रवेश करके जो शुद्धात्मानुभूति हुई, वही मोक्षमार्ग है।
जहाँ शुद्धात्मानुभूति हुई, वहाँ फिर कोई नियम या टेक नहीं है कि इतने शास्त्र जानना ही चाहिए अथवा इतने शास्त्र जाने, तभी मोक्षमार्ग बने; विशेष शास्त्र ज्ञान हो या न हो, परन्तु जहाँ शुद्धात्मानुभूति हुई - वहाँ मोक्षमार्ग हो ही गया।
उदयभाव से या बाहर के जानपने के आधार से गुणस्थान का माप नहीं निकलता; किन्तु अन्दर की शुद्धता के आधार से या स्वसत्ता का अवलम्बन कैसा है - उसके आधार से गुणस्थान का माप निकलता है।
१. समयसार कलश टीका-१३