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मोक्षमार्ग की पूर्णता श्रद्धा होती है, उसके बाद चारित्र होता है। इसलिये पहले श्रद्धा प्रगट होती है और फिर चारित्र का विकास होता है। ___ श्रद्धा गुण की क्षायिक श्रद्धारूप पर्याय होने पर भी ज्ञान और चारित्र में अपूर्णता होती है। इससे सिद्ध हुआ कि वस्तु में अनंत गुण हैं और वे सब स्वतंत्र हैं; वही अन्यत्व भेद है।
ज्ञानी के चारित्र दोष के कारण राग-द्वेष होते हैं; तथापि उसे अन्तरंग में निरन्तर यह समाधान बना रहता है कि - यह राग-द्वेष पर वस्तु के परिणमन के कारण नहीं; किन्तु मेरे दोष से होते हैं, तथापि वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरी पर्याय में राग-द्वेष होने से पर में कोई परिवर्तन नहीं होता; ऐसी प्रतीति होने से ज्ञानी के राग-द्वेष का स्वामित्व नहीं रहता
और ज्ञातृत्व का अपूर्व निराकुल संतोष हो जाता है। ___केवलज्ञान होने पर भी अरिहन्त भगवान के प्रदेशत्व गुण की
और ऊर्ध्वगमन स्वभाव की निर्मलता नहीं हैइसीलिये वे संसार में हैं। अघातिया कर्मों की सत्ता के कारण अरिहन्त भगवान के संसार हो; सो बात नहीं है; किन्तु अन्यत्व नामक भेद होने के कारण अभी प्रदेशत्व आदि गुण का विकार है; इसीलिये वे संसार में हैं।
जैसे- सम्यग्दर्शन होने पर चारित्र (पूर्ण) नहीं हुआ तो वहाँ अपने चारित्रगुण की पर्याय में दोष है, श्रद्धा में दोष नहीं। चारित्र सम्बन्धी दोष अपने पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण है, कर्म के कारण वह दोष नहीं है।
इसीप्रकार केवलज्ञान के होने पर भी प्रदेशत्व सत्ता और योग सत्ता में जो विकार रहता है, उसका कारण यह है कि समस्त गुणों में अन्यत्व नामक भेद है।
प्रत्येक पर्याय की सत्ता स्वतंत्र है। द्रव्य-गुण की भी सत्ता स्वतंत्र है।
यदि प्रत्येक गुणसत्ता और पर्यायसत्ता के अस्तित्व को ज्यों का त्यों जाने तो ज्ञान सच्चा है।