________________
श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
भिन्न लिया जाये, तभी विषय-विषयी दो भाव सिद्ध हो सकते हैं; इससे अन्यथा मानने से महा - विपरीतता होती है।
श्रुतज्ञान की पर्याय प्रमाणज्ञान है । प्रमाणज्ञान स्वयं पर्याय होने से व्यवहार है। वीतरागी पर्यायें स्वयं व्यवहार हैं; परन्तु उसमें त्रिकाली द्रव्यरूप निश्चय का आश्रय लिया होने से उस निर्मलपर्याय को निश्चयनय कहा है; परन्तु वह पर्याय होने से व्यवहार ही है।
शास्त्र का तात्पर्य वीतरागता है । पर का लक्ष्य छोड़कर, राग का लक्ष्य छोड़कर, पर्याय का लक्ष्य छोड़कर त्रिकाली द्रव्य का लक्ष्य करे, तब वीतरागता प्रकट होती है। यदि त्रिकाली द्रव्यरूप ध्येय में पर्याय को साथ ले तो वह बात नहीं रहती ।
117
( आत्मधर्म : जनवरी १९७७, पृष्ठ- २४-२५) १६. प्रश्न - इसका कोई शास्त्रीय आधार भी है क्या ? उत्तर - समयंसार की ४९वीं गाथा की टीका में त्रिकाली सामान्य ध्रुवद्रव्य से निर्मलपर्याय को भिन्न बतलाते हुये कहा है कि व्यक्तपना तथा अव्यक्तपना एकमेक - मिश्रितरूप से प्रतिभासित होने पर भी वह व्यक्तपने को स्पर्श नहीं करता, इसलिये अव्यक्त है। इस अव्यक्त विशेषण से त्रिकाली ध्रुवद्रव्य कहा है, उसके आश्रय से निर्मलपर्याय प्रकट होती है; तथापि वह त्रिकाली ध्रुव द्रव्य व्यक्त ऐसी निर्मलपर्याय को स्पर्श नहीं करता। इसी अपेक्षा से त्रिकाली ध्रुव द्रव्य से निर्मलपर्याय को भिन्न कहा है।
प्रवचनसार गाथा १७२ में अलिंगग्रहण के १८वें बोल में कहा है कि आत्मा में अनन्त गुण होने पर भी उन गुणों के भेद को आत्मा स्पर्श नहीं करता; क्योंकि गुणों के भेद को लक्ष्य में लेने से विकल्प उठता है, निर्विकल्पता नहीं होती । शुद्ध निश्चयनय से एकरूप अभेद सामान्य ध्रुवं द्रव्य को लक्ष्य में लेने से विकल्प टूटकर निर्विकल्पता होती है। इसलिये आत्मा गुणों के भेद को स्पर्श नहीं करता ऐसा कहा है।