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मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यग्दर्शन ही वीतरागी परिणमन भी हुआ है, अत: वीतरागता का सम्बन्ध देखकर उसे वीतराग सम्यग्दर्शन कहा गया है।(आत्मधर्म : फरवरी १९७७, पृष्ठ-२७)
४२. प्रश्न - ज्ञानप्राप्ति का फल तो राग का अभाव होना है न ?
उत्तर-राग का अभाव अर्थात्राग से भिन्न आत्मा के अनुभवपूर्वक भेदज्ञान का होना। इसमें राग के कर्त्तापने का-स्वामीपने का अभाव हुआ, राग में से आत्मबुद्धि छूट गई; यही राग के प्रथम नम्बर का अभाव हो गया।
(आत्मधर्म : जनवरी १९७८, पृष्ठ-२६) ४३. प्रश्न-सम्यग्दर्शन सहित नरकवास भी भला कहा है तो क्या नरक में सम्यग्दृष्टि को आनंद की गटागटी है ?
उत्तर - यह तो सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से कहा है; फिर भी जितनी कषाय है, उतना दुःख तो है ही। तीन कषाय हैं, उतना दुख है । मुनि को पानी में पेले, अग्नि में जलावे; तथापि तीन कषाय का अभाव होने से उन्हें आनंद है।
(आत्मधर्म : जून १९८१, पृष्ठ-२७) ४४. प्रश्न - सम्यक् श्रद्धा और अनुभव में क्या अन्तर है?
उत्तर-सम्यक्श्रद्धान-प्रतीति तो श्रद्धागुण की पर्याय है और अनुभव मुख्यतः चारित्रगुण की पर्याय है। (आत्मधर्म : अप्रेल १९८१, पृष्ठ-२४)
४५. प्रश्न-मिथ्यात्व-आस्रवभाव को तोड़ने का वज्रदण्ड क्या है?
उत्तर - त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकस्वभाव ही वज्रदण्ड है; क्योंकि उसी का आश्रय लेने से मिथ्यात्व-आम्रवभाव टूटता है। प्रथम में प्रथम कर्तव्य राग से भिन्न होकर ज्ञायकभाव की दृष्टि करना है। इस कार्य को किये बिना तप-व्रतादि सभी कुछ थोथा है।
(आत्मधर्म : सितम्बर १९७९, पृष्ठ-२७) ४६. प्रश्न - किसी जीव का उपशम सम्यक्त्व छूट जाये और वह मिथ्यात्व में आ जाये तो उसे ख्याल में आता है कि मुझे सम्यक्त्व हुआ था ?