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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
इतनी बात अवश्य है कि सम्यक्त्व के उत्पत्तिकाल में अर्थात् प्रकट होते समय निर्विकल्प अनुभूति अवश्यमेव होती है, इसलिए उसे 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' अर्थात् सम्यक्त्व प्रकट होने का लक्षण कह सकते हैं।
अनुभूति सम्यक्त्व के सद्भाव को प्रसिद्ध अवश्य करती है, परन्तु जिस समय अनुभूति नहीं हो रही होती है, उस समय भी सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व का सद्भाव तो रहता ही है; इसलिए अनुभूति को सम्यक्त्व के लक्षण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। लक्षण तो ऐसा होना चाहिये कि जो लक्ष्य के साथ सदैव रहे और जहाँ लक्षण न हो, वहाँ लक्ष्य भी न हो। (आत्मधर्म : जुलाई १९७७, पृष्ठ-२३)
२. प्रश्न - अनुभूति को सम्यग्दर्शन का लक्षण कह सकते हैं या नहीं?
उत्तर - अनुभूति को लक्षण कहा है; लेकिन वास्तव में तो वह ज्ञान की पर्याय है, सही लक्षण तो प्रतीति ही है। केवल आत्मा की प्रतीति -- यह श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) का लक्षण है।
(आत्मधर्म : सितम्बर १९७६, पृष्ठ-२४) ३. प्रश्न - सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिए पात्रता कैसी होनी चाहिये?
उत्तर - पर्याय सीधी द्रव्य को पकड़े, वह सम्यग्दर्शन की पात्रता है। तदतिरिक्त व्यवहार-पात्रता तो अनेक प्रकार की कही जाती है। मूल पात्रता तो दृष्टि, द्रव्य को पकड़कर स्वानुभव करे; वही है।
(आत्मधर्म : अप्रेल १९८०, पृष्ठ-२२) ४. प्रश्न-सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाले की व्यवहार योग्यता कैसी होती है?
उत्तर - निमित्त से अथवा राग से सम्यग्दर्शन नहीं होता, पर्यायभेद के आश्रय से भी नहीं होता, अन्दर में ढलने से ही सम्यग्दर्शन होता है,