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उपसंहार एवं लाभ
६) सम्यग्दृष्टि मनुष्य की अनेक वर्षों तक अव्रती अवस्था जानकर उसके प्रति उत्पन्न होनेवाला अनादर भाव सहज ही दूर हो जाता हैं एवं पुण्य-पाप परिणाम सहज प्रतीत होते हैं।
७) अव्रती मनुष्य को व्रतों का स्वीकार हठपूर्वक करना चाहिए - ऐसा विचार निकल जाता है। .
८) मात्र बाह्य व्रतों की महिमा का भाव नष्ट हो जाता है।
९) ज्ञानी जीवों के जीवन में व्रत सहजरूप से क्रम से आ जाते हैं; इस आगम-वचन (प्रवचनसार गाथा ५ की टीका) की श्रद्धा उत्पन्न होती है।
१०) सर्वार्थसिद्धि के देव, लौकान्तिक देव, सौधर्म इन्द्र एवं चक्रवर्ती मनुष्य तथा भोगभूमिज मनुष्य के औदयिक परिणामों की विभिन्नता सहज प्रतीत होती है, उसमें अटपटापन नहीं लगता।
इतने विवेचन से पाठकों को श्रद्धा आदि गुणों की, सम्यग्दर्शन आदि पर्यायों की उत्पत्ति, उनका विकासक्रम एवं उनके पर्याय की पूर्णता का कथंचित् ज्ञान अवश्य हुआ होगा - ऐसा मैं मानता हूँ। __साथ ही यह सम्पूर्ण प्रकरण जिनवाणी और ज्ञानियों के अनुसार है, तथा जो कमियाँ हैं, वे सब मेरी अल्पज्ञता के कारण हैं - ऐसा समझने का पाठकों से मेरा नम्र निवेदन है। ___ मैंने जो लिखने तथा प्रकाशित करने का प्रयास किया है, उसमें जिनेन्द्र-कथित तत्त्व का मेरे द्वारा किया गया अध्ययन, मनन-चिंतन ही प्रमुख है। ___अंत में पाठकगण उक्त सम्पूर्ण विषय को समझकर मोक्षमार्ग की पूर्णता की ओर अग्रसर हों - इसी भावना के साथ समाप्त करता हूँ।
सूज्ञेषु अलं विस्तरेण।