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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
उत्तर - नव तत्त्व को यथार्थ रूप से जानने पर उसमें शुद्धजीव का ज्ञान भी साथ में आ ही जाता है, तथा जो शुद्धजीव को जानता है उसको नव तत्त्व का भी यथार्थ ज्ञान अवश्य होता है। इसप्रकार नव तत्त्व के ज्ञान को सम्यक्त्व कहो अथवा शुद्धजीव के ज्ञान को सम्यक्त्व कहो - दोनों एक ही हैं । (ज्ञान कहने पर उस ज्ञानपूर्वक की प्रतीति को सम्यग्दर्शन समझना । )
इसमें एक विशेषता यह है कि सम्यक्त्व प्रकट होने की अनुभूति के समय में नव तत्त्व के ऊपर लक्ष्य नहीं होता, वहाँ तो शुद्धजीव के ऊपर ही उपयोग लक्षित होता है और 'यह मैं हूँ' - ऐसी जो निर्विकल्प प्रतीति है, उसके ध्येयभूत एकमात्र शुद्धात्मा ही है।
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( आत्मधर्म : जुलाई १९७७, पृष्ठ- २३) ९. प्रश्न - सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की विधि क्या है? उत्तर - 'पर का कर्त्ता आत्मा नहीं, राग का भी कर्त्ता नहीं, राग से भिन्न ज्ञायक मूर्ति हूँ' - ऐसी अन्तर में प्रतीति करना ही सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की विधि है।
ऐसा समय मिला है जिसमें आत्मा को राग से भिन्न कर देना ही कर्तव्य है। अवसर चूकना बुद्धिमानी नहीं ।
( आत्मधर्म : जनवरी १९७८, पृष्ठ- २५ ) १०. प्रश्न - त्रिकाली ध्रुव द्रव्यदृष्टि में आया - ऐसा कब कहा जाय? वेदन में भी द्रव्य आता है क्या?
उत्तर - चैतन्य त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मद्रव्य दृष्टि में आने पर नियम से पर्याय में आनन्द का वेदन आता है। इसी पर्याय को अलिंगंग्रहण के २०वें बोल में आत्मा कहा है।
त्रिकाली ध्रुव भगवान के ऊपर दृष्टि पड़ने पर आनन्द का अनुभव होता है, तभी द्रव्यदृष्टि हुई कही जाती है।