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मोक्षमार्ग की पूर्णता
चारित्र गुण की पर्यायें अपूर्ण - अविकसित रहती हैं। इसी कारण से श्रावक एवं साधु के अनेक गुणस्थान होते हैं; यह विषय हमें अगुरुलघुत्व गुण से ही स्पष्ट होता है ।
८. श्रद्धा की पर्याय चौथे गुणस्थान में, ज्ञान की पर्याय तेरहवें गुणस्थान में एवं चरित्र की पर्याय सिद्ध अवस्था में परिपूर्ण निर्मल होती है; ऐसा पक्का ज्ञान होता है।
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९. भावलिंगी मुनिराज भूमिका के योग्य क्रोधादि कषायरूप परिणत होते हुए भी उनका भावलिंगपना सुरक्षित रहता है और श्रावक पूजादि शुभ कार्य करते समय अथवा युद्धादि अशुभ कार्य करते समय भी उसका साधकपना यथायोग्य बना रहता है; यह विषय समझ में आता है।
१०. द्रव्य अर्थात् वस्तु और गुणों का द्रव्य, क्षेत्र एवं काल एक ही होने से द्रव्य में से गुण बिखरकर अलग-अलग नहीं होते । जैसे - डिब्बे भरे हुए गेहूँ डिब्बे से बिखरकर अलग-अलग हो जाते हैं; वैसे जीव द्रव्य में से ज्ञानादि गुण, अथवा पुद्गल में से स्पर्शादि गुण बिखरकर अलग-अलग नहीं होते हैं।
११. जीव - पुद्गलादि द्रव्य में ज्ञानादि या स्पर्शादि गुण जितने और जैसे हैं, वे उतने और वैसे के वैसे ही बने रहते हैं; न हीनाधिक होते हैं और न उनका अभाव होता है।
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८६. प्रश्न - एक जीव में स्थित श्रद्धा गुण का क्षायिक सम्यक्त्वरूप पूर्ण एवं निर्मल परिणमन उसी जीव में स्थित ज्ञान तथा चारित्र गुण के परिपूर्ण परिणमन करने में कुछ उपयोगी नहीं है - क्षायिक सम्यक्त्वरूप पर्याय, ज्ञान तथा चारित्र के पूर्ण परिणमन में कार्य नहीं कर सकती, यह जिसतरह आपने व्यवस्थित सिद्ध करके दिखाया।
उसीतरह पुद्गल द्रव्य के एक गुण का परिणमन उसी पुद्गल के दूसरे गुण के परिणमन में अकिंचित्कर है; कृपया इसे भी समझाइयें ।
१. जिनधर्म - प्रवेशिका, पृष्ठ ३८, ४०