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सम्यक्चारित्र की पूर्णता
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में रागभाव का अभाव होने के कारण कर्म का बन्ध नहीं है और जितने अंश में रागभाव है, उतने ही अंश में कर्मों का बंध है। __ भावार्थ - मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा जीव के सम्यग्ज्ञान का अभाव है
और मिथ्याज्ञान का सद्भाव है, इसलिये उनको पूर्ण राग-द्वेष विद्यमान होने से उनके अवश्य ही कर्म-बन्ध होता है। __ तेरहवें गुणस्थानवर्ती परमात्मा को पूर्ण सम्यग्ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान प्रगट हो जाने के कारण राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो गया है, अतः उनके कर्मबन्ध बिल्कुल नहीं है।
अन्तरात्मा, जो अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह नामक बारहवेंगुणस्थान तक है, उसके जितने अंश में सम्यग्ज्ञान प्रगट होकर जितने अंश में राग-द्वेष मिटता जाता है, उतने ही अंश में कर्मबन्ध भी नहीं है तथा जितने अंश में राग-द्वेष विद्यमान है, उतने अंश में कर्मबन्ध भी होता रहता है।
येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति। ___ येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति॥
अर्थ - जितने अंश में सम्यक्चारित्र प्रगट हो गया है, उतने ही अंश में कर्मबन्ध नहीं है और जितने अंश में राग-द्वेषभाव हैं, उतने ही अंश में कर्म का बन्ध है।
भावार्थ- बहिरात्मा के मिथ्याचारित्र है, सम्यक्चारित्र रंचमात्र भी नहीं है; अतः उसके राग-द्वेष की पूर्णता होने से पूर्ण कर्म का बन्ध है
और परमात्मा के पूर्ण सम्यक्चारित्र होने के कारण रंचमात्र भी कर्म का बन्ध नहीं है।
अन्तरात्मा के जितने अंश में राग-द्वेषभाव का अभाव है, उतने अंश में कर्म का बन्ध नहीं है और जितने अंश में राग-द्वेष है, उतने अंश में कर्म का बन्ध है।