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मोक्षमार्ग की पूर्णता . मोहनीय कर्म के दो भेद हैं - दर्शनमोह, चारित्रमोह। दर्शनमोह के उदय से मिथ्यादर्शन होता है और चारित्रमोह के उदय से मिथ्याचारित्र अथवा अचारित्र होता है। ___ चारित्र के भी दो भेद हैं - १) स्वरूपाचरण चारित्र २) संयमाचरण चारित्र। इनमें से जघन्य स्वरूपाचरण चारित्र तो चतुर्थ गुणस्थान में प्रगट होता ही है तथा संयमाचरण चारित्र के दो भेद हैं - एकदेश और सकलदेश। ____ पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक के तो एकदेश चारित्र हैं और छठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक मुनिराज के सकलदेश चारित्र हैं तथा तेरहवें गुणस्थान में पहुंचने पर वही मुनिराज जिनराज बन गये और परमात्मा कहलाये। वहाँ उनके सम्यक्चारित्र की पूर्णता होकर बन्ध का अभाव हो गया है।
जितना-जितना उन कषायों का अभाव होता जाता है, उतनाउतना ही उसके सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्चारित्र गुण का विकास होता जाता है। __ जैसे कि दर्शनमोहनीय का अभाव होने पर सम्यग्दर्शन होता है
और अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का अभाव होने पर उतने अंश में स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट होता है।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय चौकड़ी का अभाव होने से देशचारित्र प्रगट होता है।
प्रत्याख्यानावरण कषाय चौकड़ी का अभाव होने से सकलचारित्र प्रगट होता है।
संज्वलन कषाय चौकड़ी और नव नोकषाय का अभाव होने से यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है। - इसतरह इस मोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियाँ ही जीव को राग-द्वेष होने में निमित्त कारण हैं।