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मोक्षमार्ग की पूर्णता
इस विषय का ही विस्तृत विवेचन पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ के श्लोक २१२ से २१४ में भी है। मूल श्लोक, अर्थ एवं भावार्थ इसप्रकार है -
"येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति॥ अर्थ - इस आत्मा के जितने अंश में सम्यग्दर्शन है, उतने अंश में कर्मबन्ध नहीं है तथा जितने अंश में रागभाव है, उतने ही अंश में कर्म का बन्ध है। - भावार्थ-जीव के तीन भेद हैं - १. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा, ३. परमात्मा। इन तीनों में से बहिरात्मा तो मिथ्यादृष्टि है; क्योंकि उसके सम्यग्दर्शन नहीं है, केवल रागभाव ही है; अत: सर्वथा बन्ध ही है।
परमात्मा भगवान, जिनके पूर्ण सम्यग्दर्शन हो गया है, उनके रागभाव के अत्यन्त अभाव होने के कारण सर्वथा बन्ध नहीं है, मोक्ष ही है। ... अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक है, इसलिये इस अन्तरात्मा के जितने अंश में सम्यग्दर्शन हो गया है, उतने अंश में कर्म का बंध नहीं है।
चतुर्थ गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी रागभाव नहीं है तो उतना कर्मबन्ध भी नहीं है, शेष अप्रत्याख्यानावरणादि तीन का बन्ध है। ___पाँचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यान-रूप रागभाव का अभाव हुआ है, अत: उसका भी बंध रुक गया; परन्तु प्रत्याख्यानावरणादि दो का बन्ध अभी भी शेष है।
छठवें-सातवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरणादि सम्बन्धी रागभाव नष्ट हुआ, तब उतना बन्ध भी मिट गया है। .. येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति॥ अर्थ-जितने अंश में जीव के सम्यग्ज्ञान हो गया है, उतने ही अंश