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सम्यक्चारित्र की पूर्णता
७१. प्रश्न - कदाचित् आप पूछ सकते हो कि हमें ज्ञाता-दृष्टा ही क्यों रहना है ?
उत्तर - अरे भाई ! हम आप मात्र ज्ञाता-दृष्टा ही हैं। हमाराआपका स्वभाव ही ज्ञाता-दृष्टा रहने का है। ज्ञानी गुरू हमें अपने स्वरूप का ज्ञान करा रहे हैं। हम अपने विकल्प के अनुसार किसी में कुछ परिवर्तन कर ही नहीं सकते।
परपदार्थ में अपनी ओर से कुछ करने की भावना एवं कल्पना से ही हम अब तक दुःख भोग रहे हैं। गुरु हमें सत्य स्वरूप समझाना चाहते हैं तो भी हम अपनी हठाग्रहपूर्ण प्रवृत्ति छोड़ना ही नहीं चाहते तो अरहन्तदेव अथवा जिनवाणी माता भी क्या कर सकती है ?
श्रद्धागुण का सम्यक् परिणमन, चारित्रगुण का सम्यक् परिणमन तथा सम्यक् चारित्र का विकास एवं उसकी पूर्णता के विषय में आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी के विचार इसप्रकार हैं -
७२. "प्रश्न - जब श्रद्धा और चारित्र दोनों गुण स्वतंत्र हैं तब सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र सम्यक् नहीं होता, ऐसा क्यों होता है?
उत्तर - यह सच है कि गुण स्वतंत्र है; परन्तु श्रद्धा गुण से चारित्रगुण उच्च प्रकार का है। श्रद्धा की अपेक्षा चारित्र में विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता है। श्रद्धा की अपेक्षा चारित्र विशेष पूज्य है; इसलिये पहले श्रद्धा के विकसित हुए बिना चारित्रगुण विकसित हो ही नहीं सकता। ___ जिसमें श्रद्धा गुण के लिये अल्प पुरुषार्थ न हो उसमें चारित्र गुण के लिये अत्यधिक पुरुषार्थ कहाँ से हो सकता है? पहले सम्यक् श्रद्धा को प्रगट करने का पुरुषार्थ करने के बाद विशेष पुरुषार्थ करने पर चारित्रदशा प्रगट होती है।
श्रद्धा की अपेक्षा चारित्र का पुरुषार्थ विशेष है, इसलिये पहले