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सम्यक्चारित्र की पूर्णता
इस विषय की स्पष्टता के लिए हम बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा १३ की हिंदी टीका का विशिष्ट अंश आगे दे रहे हैं -
६३. “यहाँ शिष्य पूछता है कि केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रय की परिपूर्णता हो गई तो उसी क्षण मोक्ष होना चाहिये। अतः सयोगी-अयोगीजिन नामक दो गुणस्थानों का काल नहीं रहता है।
इस शंका का उत्तर देते हैं - यथाख्यातचारित्र तो हुआ; परन्तु परम यथाख्यातचारित्र नहीं है। यहाँ दृष्टान्त है - जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता है तो भी उसे चोर के संसर्ग का दोष लगता है; उसी प्रकार सयोग केवलियों के चारित्र का नाश करनेवाले चारित्रमोह के उदय का अभाव होने पर भी निष्क्रिय शुद्धात्म-आचरण से विलक्षण तीन योग का व्यापार चारित्र में दोष उत्पन्न करता है। ___ तथा तीन योग का जिसको अभाव है उस अयोगी जिनको, चरम समय के अतिरिक्त, शेष चार अघातिकर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दोष उत्पन्न करता है। चरम समय में मंद उदय होने पर, चारित्र में दोष का अभाव होने से, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।"
यथाख्यात चारित्र को लेकर और कुछ चर्चा प्रश्नोत्तररूप में करते हैं -
६४. प्रश्न : आपने बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में भाव चारित्र के पूर्ण होने का कथन किया; वह हमें पूर्णरूप से समझ में नहीं आया, कृपया स्पष्ट करें?
उत्तर : मोहनीय कर्म के उदय से प्रगट होनेवाले परिणाम को मिथ्याचारित्र या अचारित्र कहते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान पर्यंत तीनों गुणस्थान में मिथ्याचारित्र रहता है।
चौथे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत यथास्थान चारित्रमोह कर्म का उदय एवं चारित्र मोह परिणाम होने से १. बृहद्र्व्यसंग्रह गाथा-१३ की टीका